बिहार विधानसभा चुनाव 2025 न केवल राज्य की राजनीति के लिए निर्णायक साबित हुआ, बल्कि इसने नेतृत्व, रणनीति, संगठन और जनता के विश्वास को लेकर कई गहरे प्रश्न भी खड़ा किया। कुल 39 दिनों के चुनावी अभियान के उतार-चढ़ाव, आरोप-प्रत्यारोप, रणनीतिक बदलाव और अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम ने राजनीति विज्ञान के छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए यह चुनाव एक ‘लैब मॉडल’ की तरह प्रस्तुत किया।
इन सबके केंद्र में एक चेहरा रहा “तेजस्वी यादव”। कभी 80 विधायकों वाली सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के युवा नेता, कभी उपमुख्यमंत्री, कभी विपक्ष के उभरते चेहरे और आज केवल 25 विधायकों के नेता हैं। फिर भी, नेता प्रतिपक्ष का पद उनके पास है, कल भी था, आज भी है, और संभावना है कि आगे भी वही बने रहेंगे। यह स्थिति अपनी जगह एक उपलब्धि भी है और एक चुनौती भी, क्योंकि सत्ता-संघर्ष में परिस्थितियाँ जितनी बदलती हैं, उतनी ही तेजी से बदलते हैं नेता के प्रति जनता के दृष्टिकोण और उम्मीदें।
भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलता है जब कोई नेता अपने करियर की शुरुआत सीधे सत्ता के शीर्ष पदों में से एक से करता है। तेजस्वी यादव को 2015 में यह अवसर मिला, जब 26 वर्ष की आयु में वे बिहार के उपमुख्यमंत्री बने। यह उम्र, यह पद और यह जिम्मेदारी, तीनों ने मिलकर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति का केंद्रित चेहरा बना दिया। लेकिन उसी के साथ उन पर उम्मीदों का बोझ भी कई गुना बढ़ गया था।
राजनीति में उतार-चढ़ाव स्वाभाविक हैं, किंतु इतना तीव्र गिरावट दुर्लभ ही देखने को मिलती है। 2015 में 80 विधायक, 2020 में 75 विधायक और 2025 में 25 विधायक। यह केवल सीटों का कम होना नहीं है, बल्कि यह कम होता जनविश्वास, कमजोर होती संगठनात्मक पकड़ और नेतृत्व से गिरती अपेक्षाओं का स्पष्ट संकेत है। बिहार जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य में इतनी बड़ी गिरावट अपने आप में गहन विश्लेषण का विषय है।
2025 के चुनाव में एनडीए का 200 सीटों के पार जाना, न सिर्फ राजनीतिक इतिहास में एक अध्याय बन गया है, बल्कि यह दिखाता है कि जनता किस प्रकार स्थिरता, स्पष्टता और विकास के मॉडल को प्राथमिकता दे रही है। एनडीए की यह जीत तीन बड़े कारणों से संभव हुई। पहली कारण जनता से सतत संवाद, दूसरी कारण स्थानीय और राज्य स्तरीय मुद्दों पर सशक्त पकड़, तीसरी कारण महागठबंधन की कमजोर तैयारी और अमर्यादित बयानबाजी का प्रतिवाद। एनडीए ने जहाँ विकास की उपलब्धियों और कानून-व्यवस्था पर जनता को विश्वास दिलाया, वहीं महागठबंधन आंतरिक संघर्षों, टिकट वितरण के विवाद, और स्पष्ट नेतृत्व के अभाव से जूझता रहा।
2025 के चुनाव में सबसे बड़े मुद्दों में से एक था, टिकट वितरण में देरी, मनमानी और संवादहीनता। तेजस्वी यादव पर सबसे गंभीर आरोप यह लगा कि उन्होंने टिकट से वंचित किए गए पुराने नेताओं एव विधायकों से बातचीत करना भी उचित नहीं समझा। एक विधायक का टीवी पर आकर अपनी पीड़ा साझा करना, यह दर्शाता है कि संगठन और नेतृत्व के बीच की दूरी कितनी बढ़ चुकी थी।राजनीति केवल भाषणों और रैलियों से नहीं चलती है। यह रिश्तों, विश्वास और संवाद की नींव पर टिकती है। जब यह नींव कमजोर हो जाए, तो चुनावी परिणाम भी उसी अनुरूप ही सामने आते हैं।
राजनीति में वंश और विरासत एक पूंजी है, परंतु जब विरासत को नेतृत्व की योग्यता से बड़ा दिखाया जाए, तो जनता में इसका असर नकारात्मक होता है। तेजस्वी यादव को कई मंचों पर यह कहते सुना गया है कि “हमारे माता-पिता दोनों मुख्यमंत्री रहे हैं।” यह कथन भले ही गर्व का विषय हो, लेकिन इसके बार-बार उच्चारण से जनता को उनमें विनम्रता से अधिक अहंकार दिखाई देने लगा। बिहार की जनता राजनीति में सादगी, संघर्ष, अनुभव और जनता से जुड़ाव को महत्व देती है, इसलिए यह बयान उनकी छवि के प्रतिकूल साबित हुआ।
तेजस्वी यादव को एक बेहतरीन वक्ता माना जाता है। उनकी रैलियाँ भीड़ खींचती हैं, उनके भाषणों में जोश रहता है, और युवा उन्हें सुनते भी हैं। लेकिन चुनाव केवल भाषणों के दम पर नहीं जीते जाते, उसके लिए आवश्यक होता है स्पष्ट रोडमैप, नीतियों की गहराई, और भविष्य की ठोस योजना।
2025 के चुनाव में महागठबंधन विजन देने में असफल रहा। “किसको क्या देना है” इस पर बात तो बहुत हुई, पर “बिहार कहाँ ले जाना है” इसका जवाब किसी के पास नहीं था।
बिहार की राजनीति का चरित्र ऐसा है कि यहाँ जनता अपने नेता को जमीनी स्तर पर देखना चाहती है। सोशल मीडिया से नहीं, जमीनी यात्राओं से नेतृत्व चमकता है। नेता प्रतिपक्ष की भूमिका केवल सवाल उठाने की नहीं होती है, वह जनता की आवाज का प्रतिनिधित्व भी करता है। इसके लिए जनता से प्रतिदिन जुड़े रहना, गाँव-गाँव जाना, मुद्दे उठाना अनिवार्य होता है। विधायकों की संख्या घटने का मतलब है कि पार्टी का जनाधार सिकुड़ रहा है। इसके लिए संगठन की पुनर्संरचना, नए चेहरों को अवसर, और पुराने नेताओं का मान-सम्मान अत्यंत आवश्यक है। बिहार युवा राज्य है और युवाओं को ऊर्जा चाहिए, दिशा चाहिए, और उम्मीद चाहिए। नेता प्रतिपक्ष का व्यक्तित्व प्रेरणादायक होना चाहिए।
उन पर अभी भी नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी है। यह पद उन्हें तीन बड़ी संभावनाएँ देता है। वे यह समीक्षा कर सकते हैं कि कहाँ राजनीतिक संवाद कम हुआ, कहाँ संगठन टूटा और कहाँ जनता की उम्मीदें अधूरी छूट गईं। राजनीति में कोई पराजय अंतिम नहीं होती, अगर नेता सीखने को तैयार हो। तेजस्वी यादव चाहे तो अगले पाँच वर्षों में नई छवि, नई रणनीति और नए बिहार विजन के साथ मजबूत वापसी कर सकते हैं। उनके पास उम्र है, समय है, और अनुभव भी है। वे चाहें तो खुद को पूरी तरह रीब्रांड कर सकते हैं।
बिहार अब वादों से नहीं, परिणामों से वोट देता है। यह बदलाव तेजस्वी यादव और सभी नेताओं के लिए चेतावनी और अवसर दोनों है। भले ही जाति अभी भी राजनीति का आधार है, पर युवा मतदाता विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे रहा है। यह वह क्षेत्र है जहाँ तेजस्वी यादव अपने लिए मजबूत जमीन बना सकते हैं। एक मजबूत लोकतंत्र के लिए जितनी आवश्यकता मजबूत सरकार की होती है, उतनी ही जरूरत जिम्मेदार विपक्ष की भी होती है। बिहार को एक ऐसा नेता प्रतिपक्ष चाहिए जो मुद्दे उठाए, समाधान सुझाए और जनता की आवाज बने।
बिहार में आज जो राजनीतिक परिदृश्य है, वह परिवर्तन, संघर्ष और पुनर्संरचना से भरा हुआ है। तेजस्वी यादव इसके केंद्र में हैं, उनके पास अनुभव है, मंच है, और चुनौती भी। यदि वे संगठन को जोड़ते हैं, जनता से सीधे जुड़ते हैं, विनम्रता और गंभीरता के साथ नई रणनीति बनाते हैं और अपने भाषणों से आगे बढ़कर ठोस विजन प्रस्तुत करते हैं, तो वे न केवल मजबूत नेता प्रतिपक्ष बन सकते हैं बल्कि भविष्य में सत्ता की दौड़ में फिर से वापसी कर सकते हैं।
