अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में स्थित समंगन प्रांत का “तख्त-ए-रुस्तम” इतिहास, धर्म और स्थापत्य कला का अद्भुत उदाहरण है। यह स्थल चौथी शताब्दी ईस्वी का एक प्राचीन बौद्ध स्तूप है, जो अपनी विशिष्ट शिल्पकला के कारण विश्वभर के इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का ध्यान आकर्षित करता है। इस स्तूप की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे पूरी तरह चट्टान को काटकर बनाया गया है अर्थात यह एक रॉक-कट मॉन्यूमेंट (Rock-cut monument) है, जो अजंता-एलोरा जैसी भारतीय गुफाओं का याद दिलाता है।
इतिहासकारों के अनुसार, तख्त-ए-रुस्तम का निर्माण उस काल में हुआ जब यह क्षेत्र कुषाण-सासानी साम्राज्य के अधीन था। इस काल में अफगानिस्तान और भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार हुआ था। तत्कालीन राजाओं ने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु अनेक विहारों, स्तूपों और गुफाओं का निर्माण कराया। “तख्त-ए-रुस्तम” भी इसी युग की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है।
यह स्तूप एक पहाड़ी के भीतर गहराई तक काटी गई विशाल गुफाओं से बना है। मुख्य स्तूप पहाड़ी की ऊँचाई पर निर्मित है, जिसकी ऊपरी संरचना पर एक हार्मिका (छत्रनुमा ढांचा) स्थित है, जो बौद्ध स्थापत्य की पहचान मानी जाती है। इसके चारों ओर चट्टान काटकर बनाए गए कई छोटे कक्ष हैं, जो संभवतः भिक्षुओं के निवास और ध्यान स्थल रहे होंगे।
सबसे आकर्षक हिस्सा है वह गुंबदाकार पूजा कक्ष, जिसकी छत पर कमल की पत्तियों की सूक्ष्म नक्काशी की गई है। यह नक्काशी उस काल की उच्च कोटि की कलात्मक समझ और धार्मिक प्रतीकवाद को दर्शाता है। कमल बौद्ध दर्शन में शुद्धता और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है।
यहां की खुदाई में समय-समय पर कुछ महत्वपूर्ण वस्तुएं मिली हैं, जिनमें गजनवी कालीन सिक्के और मिट्टी के बर्तन शामिल हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि यह स्थल लगातार कई शताब्दियों तक आबाद रहा और संभवतः बाद के कालों में भी इसका धार्मिक या सांस्कृतिक उपयोग होता रहा है।
तख्त-ए-रुस्तम न केवल बौद्ध धर्म के इतिहास का एक अध्याय है, बल्कि यह मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रसार का भी साक्ष्य है। यह स्थल दर्शाता है कि किस प्रकार भारतीय बौद्ध कला और स्थापत्य अफगानिस्तान, मध्य एशिया और चीन तक फैला है। इस स्थल का नाम “तख्त-ए-रुस्तम” फारसी किंवदंती के महान योद्धा रुस्तम से भी जोड़ा जाता है, जिससे स्थानीय जनता इसे पौराणिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण मानती है।
आज “तख्त-ए-रुस्तम” अफगानिस्तान के उन विरले पुरातात्त्विक स्थलों में से एक है, जो बीते युग की कला, आस्था और संस्कृति की गवाही देता है। यह स्थल याद दिलाता है कि धर्म और सभ्यता की जड़ें सीमाओं से परे होती हैं, जो कभी भारत की धरती से निकलीं, वे दूर अफगानिस्तान की पहाड़ियों में भी अपना अमिट निशान छोड़ गईं। “तख्त-ए-रुस्तम”, अपने पत्थरों में छिपे इतिहास के साथ, आज भी मौन साधक की तरह बौद्ध धर्म की उस शांत, गूढ़ और गहन विरासत का प्रतीक बना हुआ है।
