मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने ऐसा फैसला सुनाया है जिसने पहचान की लड़ाई लड़ रहे लाखों लोगों के दिलों में उम्मीद जगा दी। अदालत ने कहा है कि आधार डेटा में गलती सुधारना न केवल कानूनी अधिकार है बल्कि एक मौलिक अधिकार भी है। एक पहचान पत्र, जो आधुनिक जीवन का टिकट है, उसे सही करना किसी वरदान की तरह नहीं बल्कि हक है।
यह फैसला 74 वर्षीय विधवा पी. पुष्पम की याचिका पर आया है। उम्र की ढलान पर वह किसी फिल्म की नायिका की तरह नहीं, बल्कि कागजों के बोझ से जूझती एक सच्ची नायिका के रूप में सामने आईं। उनकी परेशानी सरल थी, लेकिन व्यवस्था की दीवारें ऊंची। आधार में दर्ज गलतियों ने उन्हें सरकारी लाभों और सेवाओं से दूर कर दिया था। जैसे जीवन की राह पर अचानक पत्थर आ जाए और पांव छिल जाते हों।
अदालत ने यूआइडीएआइ को भी झटका दिया, और कहा कि आधार संशोधन की प्रक्रिया को आसान बनाना जरूरी है। किसी नागरिक को अपनी पहचान साबित करते रहने के लिए बार-बार तड़पाना लोकतंत्र की आत्मा से खिलवाड़ जैसा है। आखिर पहचान का अधिकार सिर्फ एक कागज का खेल नहीं, बल्कि गरिमा की बुनियाद है।
आज के समय में आधार सिर्फ प्लास्टिक की चिपकी हुई पट्टी नहीं है, बल्कि सामाजिक सेवाओं, बैंकिंग, पेंशन, राशन, स्वास्थ्य और कितने ही हको का दरवाजा खोलने वाली चाबी है। अगर इस चाबी पर खरोंच पड़ जाए, और ताला नहीं खुले, तो समस्या नागरिक की नहीं, प्रणाली की है। हाईकोर्ट का यह निर्णय उसी प्रणाली पर एक कोमल लेकिन दृढ़ चोट है, जो कहता है कि नागरिक राज्य के पीछे दौड़ते नहीं, बल्कि राज्य नागरिकों की सेवा के लिए है।
इस फैसले का असर दूर तक जाएगा। यह उन ग्रामीण इलाकों में भी गूंजेगा जहां लोग अब भी अपनी उम्र और नाम साबित करने के लिए पुरानी school registers और ताम्रपत्र जैसे दस्तावेज पकड़े बैठते हैं। यह फैसला उन बुजुर्ग हाथों का सहारा है जो कंप्यूटर और सर्वर की भाषा नहीं समझते, लेकिन अपने हक को जरूर पहचानते हैं।
न्यायमूर्ति की यह बात एक तरह से लोकतांत्रिक कविता बन गई है पहचान की गलती राज्य की गलती है, नागरिक की नहीं, और जब पहचान सही होगी, तभी अधिकारों की धारा सहज बह पाएगी।
भारत जैसे विशाल देश में पहचान का सवाल सिर्फ administration नहीं, dignity का प्रश्न है और dignity वही खिलती है जब नागरिक को अपना नाम, अपनी जन्मतिथि, और अपनी जगह खुद तय करने का हक मिले।
यह फैसला याद दिलाता है कि संविधान सिर्फ किताब का नहीं, जीवन का दस्तावेज़ है। और हर नागरिक, चाहे वह मदुरै की पुष्पम हो या किसी पहाड़ी गांव का कमल, अपनी सही पहचान पाने का अधिकार रखता है।
