परंपरा और सपनों के बीच भावनाओं की कहानी है - फिल्म “इडली कडाई”

Jitendra Kumar Sinha
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तमिल पारिवारिक ड्रामा “इडली कडाई” सिर्फ एक फिल्म नहीं है, एक गर्म तवे पर सिजल होते सपनों और जिम्मेदारियों की खुशबू जैसा अनुभव है। गांव की गलियों, चूल्हे की आँच और भाप में उठती इडली जैसी मासूम उम्मीदों को यह कहानी बहुत ही भावुक और सजीव अंदाज़ में सामने लाती है। फिल्म का केंद्र है मुरुगन, जिसे निभाया है धनुष ने, और उनके अभिनय की नरम-सी डोज इस कहानी को घर जैसा अपनापन देती है।

मुरुगन अपने पिता शिवनेसन (सत्यराज) की छोटी-सी लेकिन बेहद सम्मानित इडली दुकान में बड़ा होता है। उस दुकान में बस भोजन नहीं बनता, बल्कि रिश्तों की डालियों पर भरोसा और प्यार जैसे पकवान तैयार होते हैं। समय की हलचल में मुरुगन अपने गांव और दुकान से दूरी बना लेता है। सपनों की हाईवे पर दौड़ता वह एक बेहतर जीवन की तलाश में निकल पड़ता है।

फिर एक दिन पिता की मृत्यु उसे लौटने पर मजबूर कर देती है। वापसी सिर्फ भौगोलिक सफर नहीं है, उसके दिल की दराजों में बंद यादों की चाबी जैसी है। गांव वही है, पर मुरुगन बदल चुका है। और अब उसके सामने खड़ा है एक भारी सवाल। क्या वह पिता की विरासत को संभालेगा या फिर नए जमाने की चमकीली राहों को चुनेगा?

फिल्म का मूल टकराव परंपरा और आधुनिकता का है। इडली दुकान सिर्फ धंधा नहीं है, पीढ़ियों की मेहनत, प्यार और समाज की पहचान का प्रतीक है। वहीं बाहर की दुनिया अवसरों और महत्वाकांक्षाओं की चाशनी में भीगी हुई है।

मुरुगन का संघर्ष दर्शक को अपनी जिंदगी की असलियत का आईना दिखाता है। फैसले कठिन हैं, सपने भी और इन्हीं दो पाटों के बीच फंसा यह पात्र दिल के तार को छू जाता है।

धनुष एक बार फिर साधारण लड़के को असाधारण भावनाएँ देने में सफल होते हैं। उनकी आंखों में गांव की मिट्टी और शहर की बेचैनी दोनों दिखाई देती हैं। नित्या मेनन उनकी साथी के रूप में कहानी में नर्म-सी रोशनी जोड़ती हैं। अरुण विजय और शालिनी पांडे के किरदार भी कथा को संतुलन देते हैं।

निर्देशक चनुष फिल्म को चिंगारी नहीं, धीमी आँच पर पकाया भोजन जैसा रखते हैं। यह शोहरत या चीखते ड्रामा वाली कहानी नहीं है, बल्कि चुपचाप बहने वाली नदी जैसी फीलिंग्स देती है। कैमरा गांव की सांसों को कैद करता है और बैकग्राउंड संगीत भावनाओं की रसोई में नमक का सही संतुलन है।

इडली कडाई उन सभी लोगों की फिल्म है जो जिन्दगी के चौराहे पर कभी न कभी खड़े हुए हैं। यह कहानी बताती है कि जड़ों से जुड़ना कमजोरी नहीं, ताकत है। बदलाव जरूरी है, पर विरासत बचाना भी उतना ही जरूरी है। फिल्म दिल को सुकून देती है, पेट को भी थोड़ा भूखा कर देती है। सच में, स्क्रीन से उठती इडली की भाप जैसे मन में बस जाती है।



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