आभा सिन्हा, पटना
भारतभूमि के 51 शक्तिपीठों में प्रत्येक स्थान देवी शक्ति के एक विशेष प्रसंग, एक विशिष्ट ऊर्जा तथा एक अनूठे इतिहास का प्रतिनिधित्व करता है। मध्यप्रदेश का पावन शहर उज्जैन, जिसे प्राचीन काल में ‘अवन्तिका’, ‘उज्जयिनी’, ‘कुशलवती’ तथा बाद के काल में ‘अवंति’ कहा गया है, विश्व के सर्वाधिक प्राचीन और पवित्र नगरों में से एक है। यह नगर कालभैरव की नगरी, महाकाल की भूमि, कुंभमहापर्व का केंद्र तथा शक्ति की अवतारी उपस्थिति का अद्भुत संगम है। इसी दिव्य धरती पर, शिप्रा नदी के तट के पास भैरव पर्वत पर स्थित है “अवंति शक्तिपीठ”।जहाँ मान्यता है कि भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटे शरीर के माता सती के ओष्ठ (होठ) इसी स्थान पर गिरे थे। यहीं शक्ति रूप में देवी अवंति और भैरव रूप में भगवान लम्बकर्ण विराजते हैं। यह पीठ केवल एक मंदिर या शक्तिस्थल भर नहीं है, अपितु अनादि काल से अनगिनत साधकों की तपस्थली, कवि-कथाकारों की प्रेरणा, राजाओं की राजधर्म-स्थापना और यात्रियों की मुक्ति-भूमि रही है।
उज्जैन का इतिहास लगभग 5000 वर्षों से भी प्राचीन माना गया है। यह भारत के सात मोक्षदायिनी पुरियों में एक है। कालिदास ने इसे ‘भूमि का अद्वितीय रत्न’ कहा है, जबकि पुराणों में इसे देवताओं की प्रिय स्थली बताया गया है। स्कंद पुराण, कूर्म पुराण, देवीभागवत, कालिका पुराण आदि में अवंति शक्तिपीठ का उल्लेख मिलता है। "अवन्तिका" शब्द का अर्थ है, जो अवन्ति अर्थात् पालन-पोषण करने वाली हो, अर्थात् यह नगर स्वयं में एक ‘धर्म-पालक सभ्यता’ रहा है। यह नगर प्राचीन ‘अवन्ती जनपद’ की राजधानी था। भारतीय गणनाओं के अनुसार, पृथ्वी का प्राचीन ‘प्रधान रेखांश’ उज्जैन से ही माना जाता था। भारतीय कैलेंडर और ज्योतिषीय गणनाएँ आज भी उज्जैन को केंद्र मानकर चलती हैं। अवंति शक्तिपीठ का अस्तित्व महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से गहराई से जुड़ा है। यह वही नगर है जहाँ काल भी हार जाता है। मृत्यु भी अमरत्व दे देती है और विश्वास साक्षात् अनुभूति में बदल जाता है।
जब यज्ञ-विरोधी अपमान के कारण पिता दक्ष द्वारा माता सती का अपमान हुआ और सती ने यज्ञ-कुण्ड में अग्निसमाधि ले ली, तो भगवान शंकर व्यथित होकर उनके दग्ध शरीर को लेकर तीनों लोकों में विचरण करने लगे। सृष्टि को अराजकता से बचाने हेतु भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के अंग-प्रत्यंग अलग-अलग स्थानों पर गिराए। जहाँ-जहाँ भी माँ के अंग गिरे, वह स्थान शक्तिपीठों के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
उसी क्रम में “अवंति शक्तिपीठ” उस स्थान के रूप में प्रकट हुआ जहाँ माता सती के ‘ओष्ठ’ (होठ) गिरा। ओष्ठ-पतन का दार्शनिक महत्व यह है कि यह स्थान वाणी, भाषा, अभिव्यक्ति, कला और सत्य-प्रतिपादन का केंद्र माना गया है। इसलिए यह पीठ सदियों से विद्या, काव्य, संगीत, और वाग्मिता की साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
हर शक्तिपीठ के साथ एक शक्ति और एक भैरव का उल्लेख मिलता है। अवंति शक्तिपीठ की शक्ति हैं देवी अवंति और भैरव हैं भगवान लम्बकर्ण (शक्ति के रक्षक)।
देवी अवंति का स्वरूप अत्यंत कोमल, मधुर, करुणामयी और आभामय माना जाता है। उनका आशीर्वाद वाणी को प्रभाव देता है। कला में सामर्थ्य लाता है। साधना में दृष्टि देता है और जीवन में मधुरता भरता है। वास्तव में ‘अवंति’ शब्द ही ‘अवनि-अवन्ति (पालन करने वाली)’ धातु से सम्बन्धित है। शक्तिपीठों में भैरव शक्ति के रक्षक माने जाते हैं। अवंति में भैरव का नाम है लम्बकर्ण। जिसका अर्थ है दीर्घ-श्रवण-शक्ति वाला, सभी की पुकार सुनने वाला और शक्ति की रक्षा हेतु सदैव सजग। साधक मानते हैं कि अवंति में की गयी साधना तभी पूर्ण मानी जाती है जब लम्बकर्ण भैरव की पूजा की जाए।
शिप्रा (कालीदीघी) सदियों से मोक्षदायिनी मानी गई है। कुंभ का आयोजन भी शिप्रा तट पर ही होता है। “अवंति शक्तिपीठ’ की ऊर्जा में शिप्रा का सात्त्विक जल निरंतर प्रवाहित रहता है। यही पर्वत प्राचीन काल में ऋषियों की तपस्थली, मध्यकाल में शैव शाक्त साधकों का केंद्र और आधुनिक काल में ध्यान योग की श्रेष्ठ भूमि, यहाँ साधना के लिए आज भी अनेक आध्यात्मिक संस्थाएँ सक्रिय हैं।
उज्जैन सदियों से हर युग में प्रमुख रहा है। सातवाहन काल में, गुप्तकाल में, विक्रमादित्य काल में, परमार वंश में और होल्कर शासन में। हर काल में अवंति शक्ति की उपासना और अवंति शक्तिपीठ का संरक्षण बढ़ा है। राजा भोज के समय अवंति शक्ति की पूजा शैव शाक्त एकता का प्रतीक बन गई थी। राजा भोज के ग्रंथों में “अवंति शक्तिपीठ” का उल्लेख है। सम्राट विक्रमादित्य ने उज्जैन को जिस सांस्कृतिक ऊँचाई पर पहुँचाया, उसमें अवंति शक्ति की आराधना का विशेष महत्व था। कालिदास भी उज्जैन और अवंति की महिमा से प्रभावित थे।
“अवंति शक्तिपीठ” पर्वत की ढलान पर स्थित एक सादगीपूर्ण, किंतु अत्यंत शक्तिपूर्ण मंदिर है। मंदिर की विशेषताएँ हैं मुख्य गर्भगृह में देवी अवंति का पवित्र प्रतीक। अलंकरण रहित, प्राकृतिक पाषाण शिला पर स्थापित रूप। शिप्रा तट का शांत वातावरण। भैरव पर्वत की प्राकृतिक ऊर्जा। प्राचीन शिलालेखों के अवशेष। शाक्त, शैव और तांत्रिक साधना पथ का संगम। यहाँ देवालय देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो देवी स्वयं अपने सबसे सहज, सरल, वास्तविक स्वरूप में विराजती हो।
माता के ओष्ठ होने के कारण यह पीठ वाणी, संगीत, लेखन, कला, सत्य, चिकित्सा, अध्यापन और मंत्र–सिद्धि का उत्कृष्ट स्थान माना गया है। साधकों का विश्वास है कि यहाँ किया गया जप जल्दी सिद्ध होता है। वाणी में आकर्षण शक्ति बढ़ती है। मानसिक तनाव शांत होता है और साधना में स्थैर्य प्राप्त होता है। कलाकार, कवि, वक्ता, गायक, अभिनेता, लेखक, संगीतज्ञ, अध्यापक, वैद्य, विद्यार्थी यहाँ विशेष रूप से दर्शन हेतु आते हैं।
उज्जैन की धरती युगों से तंत्र साधना की प्रमुख भूमि रही है। काशी के समान उज्जैन भी त्रिक-शाक्त साधना, कौल-मार्ग, भैरव-उपासना, महामाया साधना, अघोर-योग का केंद्र रहा है। “अवंति शक्तिपीठ” में साधना के तीन प्रमुख पथ प्रचलित हैं, पहला ललिता-त्रिपुरा उपासना, दूसरा भैरव-वामाचार-पूजा और तीसरा सौम्य-शाक्त साधना। श्रद्धालुओं को सामान्य रूप से सौम्य मार्ग ही अपनाने की सलाह दी जाती है।
यहाँ नवरात्र पर विशेष दुर्गा सप्तशती पाठ, शक्ति-अनुष्ठान, पुष्पांजलि और दीप-आरती होती है। शिप्रा-स्नान के बाद माता अवंति के दर्शन मोक्षकारी माना गया है। “अवंति शक्तिपीठ” गुरु-शिष्य परंपरा का भी गौरवशाली केंद्र है। सिंहस्थ कुंभ में यह शक्तिपीठ करोड़ों यात्रियों का आस्था का केंद्र बन जाता है।
“अवंति शक्तिपीठ” पहुँचने के लिए उज्जैन शहर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित भैरव पर्वत की ओर जाना होता है। रास्ता शांत, वृक्षों से आच्छादित, पहाड़ी आभा से युक्त और ग्रामीण-सौंदर्य से भरा है। मंदिर के पास शिप्रा का तट अत्यंत शांत और साधना के अनुकूल है।
उज्जैन में शक्ति और शिव की ऊर्जा एक-दूसरे के बिना अधूरी है। महाकाल और अवंति, दिव्य दांपत्य शक्ति है और शिव-शक्ति का जीवंत रूप। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद “अवंति शक्तिपीठ” का दर्शन करना अत्यंत शुभ माना गया है।
सदियों से यहां अनेक अद्भुत घटनाओं के उल्लेख मिलते हैं, साधकों को दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देना, संकटों का तुरंत निवारण, दुर्लभ रोगों का प्राकृतिक उपचार, वाणी में मधुरता की प्राप्ति और कला-शक्ति का उद्भव। उज्जैन के स्थानीय विद्वान इस स्थान को ‘वाग्देवी का उत्तरायण केंद्र’ भी कहते हैं।
अनेक कवियों, संतों, रचनाकारों ने अवंति में साधना कर अद्वितीय कृतियाँ रचीं है। यह पीठ उज्जैन की प्राचीन संगीत परंपरा का भी आधार है। यह नगर तक्षशिला और नालंदा के समान भारतीय ज्ञान परंपरा का मुख्य केंद्र रहा है।
यात्रियों के अनुभवों में कुछ समानताएँ मिलती हैं कि मन तुरंत शांत हो जाता है। चिंताओं का बोझ हल्का हो जाता है। ध्यान सहज लगने लगता है। मनोबल बढ़ता है और वाणी में सकारात्मक परिवर्तन आता है। यदि किसी का कार्य लंबे समय से रुक रहा हो तो यहाँ दीपक जलाकर माँ से प्रार्थना करने पर सफलता मिलती है। विद्यार्थी परीक्षा से पहले यहाँ दर्शन करते हैं। वक्ता, गायक, लेखक, संगीतज्ञ, मीडिया कर्मी इस शक्ति से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। नवविवाहित दंपति सुख-शांति हेतु यहाँ आते हैं।
अवंति शक्तिपीठ सिखाता है कि वाणी सत्य और मधुर हो, शक्ति और सौम्यता का संतुलन बना रहे, साधना जीवन का आधार हो और मनुष्यता सर्वोपरि है।
“अवंति शक्तिपीठ” केवल एक शिलामय मंदिर नहीं है, बल्कि वाणी की शक्ति का केंद्र, साधना की भूमि, मोक्ष का द्वार, पर्व और परंपराओं की धुरी और शक्ति-उपासना का महाकेंद्र है।
