“गायत्री शक्तिपीठ” (देवी सती का मणिबन्ध (कलाई) गिरा था)

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना 

भारतभूमि की सबसे अनूठी विशेषता यह है कि यहाँ धर्म केवल पूजा या आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक श्वास में व्याप्त है। जब हम शक्ति की बात करते हैं, तो यह केवल देवी का रूप नहीं है, बल्कि समस्त सृष्टि की प्राणशक्ति है। वह ऊर्जा जो ब्रह्मा को सृजन की प्रेरणा देती है, विष्णु को पालन की सामर्थ्य और महेश को संहार का संकल्प। इसी आद्यशक्ति के विविध रूपों की आराधना के प्रतीक हैं 51 शक्तिपीठ, जिसमें से एक है  “गायत्री शक्तिपीठ”, पुष्कर (राजस्थान)।

यह पवित्र शक्तिपीठ उस स्थान पर स्थित है जहाँ माता सती के दोनों मणिबन्ध (कलाई) गिरा था। अतः इसे मणिबन्ध शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यहाँ देवी को ‘गायत्री’ नाम से पूजा जाता है और उनके भैरव को ‘सर्वानंद’ कहा गया है।

पुष्कर, जो स्वयं भगवान ब्रह्मा की तपोभूमि और एकमात्र ब्रह्मा मंदिर का स्थान है, वहीं यह शक्तिपीठ दिव्य स्त्री शक्ति और ब्रह्मविद्या का संगम बनकर खड़ा है।

माता सती की कथा भारतीय धर्म परंपरा में जितनी करुणामयी है, उतनी ही प्रेरणादायी भी। जब उनके पिता दक्ष ने भगवान शिव का अपमान किया और सती ने यज्ञ अग्नि में अपने प्राण समर्पित किए, तब शिव शोक में व्याकुल होकर सती के शरीर को उठाकर ब्रह्मांड में विचरने लगे। देवताओं ने विष्णु से विनती की, तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया, जो पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इसमें से प्रत्येक स्थान एक विशिष्ट शक्ति और भैरव से संबंधित है। पुष्कर का गायत्री शक्तिपीठ उन पवित्र स्थलों में से एक है जहाँ सती के मणिबन्ध गिरा था। मणिबन्ध अर्थात् कलाई, कर्म का प्रतीक है। इसलिए यह स्थान कर्म, साधना और ब्रह्मविद्या का प्रतीक बन गया है।

राजस्थान के अजमेर जिला से लगभग 11 किलोमीटर दूर स्थित पुष्कर नगरी केवल तीर्थ ही नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना का केन्द्र है। यहाँ एक ओर ब्रह्मा जी का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है, तो दूसरी ओर गायत्री शक्तिपीठ में शक्ति की साधना होती है।

गायत्री पर्वत पर स्थित यह शक्तिपीठ भक्तों को साक्षात ब्रह्मविद्या का अनुभव कराता है। यह पर्वत मानो ज्ञान का शिखर है, जहाँ भक्ति और वेदज्ञान का मिलन होता है।

कहा जाता है कि इस पर्वत पर हजारों वर्ष पूर्व महर्षि विश्वामित्र ने कठोर तपस्या कर गायत्री मंत्र का प्राकट्य किया था। बाद में जब सती के मणिबन्ध इस स्थल पर गिरा, तब यह स्थान “गायत्री शक्तिपीठ” कहलाया। 

यहाँ की शक्ति ‘गायत्री माता’ के रूप में पूजित हैं, जो वेदों की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। उनके साथ स्थित भैरव ‘सर्वानंद’ हैं, जो आनंद और ज्ञान के रक्षक माना जाता है। कहा जाता है कि जो साधक यहाँ गायत्री जप करता है, उसे ज्ञान, विवेक और मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। अनेक योगी और संत यहाँ तप कर सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं।

गायत्री माता पंचमुखी और दस भुजाओं वाली देवी के रूप में पूजित हैं। उनके पाँच मुख वेदों के प्रतीक हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और परमब्रह्म ज्ञान। उनके हाथों में शंख, चक्र, कमंडल, कमल, धनुष, पुस्तक, माला आदि होता है। वह कमलासन पर विराजमान हैं, जो निर्मलता और ज्ञान का प्रतीक है।



प्रत्येक शक्तिपीठ में माता की शक्ति के साथ एक भैरव होते हैं जो उस शक्ति की रक्षा और साधकों के मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। यहाँ के सर्वानंद भैरव आनंदस्वरूप हैं, उनका नाम ही बताता है कि वे समस्त जीवों को परम आनंद की ओर ले जाने वाले हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति सर्वानंद भैरव का दर्शन करता है, उसके जीवन से भय और अज्ञान मिट जाता है। वे सत्य, सेवा और साधना की प्रेरणा देते हैं।

गायत्री पर्वत अरावली श्रृंखला का एक शांत और मनोहारी शिखर है। यहाँ से पुष्कर झील का अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। पर्वत के शीर्ष पर स्थित मंदिर में प्रवेश करते ही एक अदृश्य ऊर्जा का अनुभव होता है, मानो वायु में ही जप का स्पंदन घुला हो। भक्त प्रातःकाल यहाँ सूर्योदय के साथ गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं- “ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।” यह मंत्र यहाँ केवल शब्द नहीं है, बल्कि जीवंत ऊर्जा के रूप में अनुभूत होता है।

राजस्थान के राजपूतों और साधु-संतों ने इस पीठ को सदियों तक संरक्षण दिया। पुष्कर मेले के अवसर पर हजारों भक्त गायत्री माता के दर्शन के लिए पर्वत तक पहुँचते हैं। कई ऐतिहासिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि यहाँ आदि शंकराचार्य ने भी दर्शन किए थे और इसे ज्ञान की शक्ति का केंद्र बताया था। यह पीठ भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण आंदोलन में भी विशेष भूमिका निभाता है। आधुनिक काल में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य (गायत्री परिवार के संस्थापक) ने इस स्थल को पुनः विश्व ध्यान का केंद्र बनाया।

गायत्री मंत्र केवल एक स्तोत्र नहीं है, बल्कि सृष्टि का ध्वनि-संहिता है। यह मंत्र सूर्य की दिव्य ऊर्जा को आह्वान करता है और बुद्धि को प्रकाशित करता है। गायत्री शक्तिपीठ पर इस मंत्र का जाप करना माना जाता है कि जैसे सीधे ब्रह्मविद्या से जुड़ना। यहाँ ध्यान करने वाले कहते हैं कि मंत्र के प्रत्येक अक्षर में ऊर्जा का कंपन महसूस होता है। अतः यह स्थान केवल पूजा का नहीं है, बल्कि ध्यान, साधना और आत्मज्ञान का भी तीर्थ है।

“गायत्री शक्तिपीठ” का वातावरण अत्यंत शांत, हरित और पवित्र है। पर्वत की ढलानों पर नीम, पीपल और बबूल के वृक्ष हवा में मंत्रों का कंपन फैलाता है। झील की ओर से आती शीतल बयार और मंदिर की घंटियों की ध्वनि मिलकर एक ऐसा अद्भुत वातावरण बनाता है, जो मन को समाधि की अवस्था में पहुँचा देता है। रात्रि में जब दीपक जलता है, तो यह स्थान मानो आकाश में तैरता हुआ स्वर्गलोक प्रतीत होता है।

यहाँ आने वाले भक्त तीन प्रमुख कार्य अवश्य करते हैं गायत्री जप- 108 या 1008 बार जपकर बुद्धि और आत्मा को शुद्ध करना। स्नान और अर्घ्य- पुष्कर झील में स्नान के बाद गायत्री माता को अर्घ्य देना। भैरव पूजन-  सर्वानंद भैरव के मंदिर में दीपदान कर सुरक्षा और सुख की कामना करना। नवरात्र, बसंत पंचमी और गुरु पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ विशेष पूजन और यज्ञ आयोजित होता है।

मणिबन्ध (कलाई) कर्म का प्रतीक है, यह शरीर का वह भाग है जिससे कार्य करते हैं, रचना करते हैं। जब माता सती के मणिबन्ध यहाँ गिरा, तो यह स्थान कर्मयोग की प्रेरणा भूमि बन गया। इसलिए गायत्री शक्तिपीठ का दर्शन यह सिखाता है कि “ज्ञान और भक्ति तभी सार्थक हैं, जब वे कर्म में परिणत हों।” यह स्थान कर्म, ध्यान और सेवा तीनों का संगम है, यही कारण है कि इसे “ज्ञानकर्मयोग की देवी भूमि” कहा गया है।

पुष्कर पहुँचने पर जब भक्त गायत्री पर्वत की ओर बढ़ते हैं, तो यह यात्रा मात्र चढ़ाई नहीं होता है बल्कि एक आध्यात्मिक आरोहण होता है। मार्ग में स्थान-स्थान पर बने छोटे मंदिर, साधुओं के आश्रम, और मंत्रोच्चारण की ध्वनि वातावरण को दिव्यता से भर देता है। मंदिर के गर्भगृह में पहुँचने पर भक्त को देवी का साक्षात दर्शन होता है। गायत्री माता के तेजस्वी मुखमंडल पर शांति और करुणा का अद्भुत मिश्रण झलकता है।

स्कंदपुराण, देवीभागवत और तंत्रचूड़ामणि जैसे ग्रंथों में गायत्री पीठ का उल्लेख मिलता है। एक श्लोक में कहा गया है- “मणिबन्धे तु यत्र देवी, गायत्री रूपधारिणी। सर्वानंदसहित तत्र शक्तिपीठं प्रकीर्तितम्॥” अर्थात जहाँ माता सती के मणिबन्ध गिरे, वहाँ गायत्री रूप में देवी की स्थापना हुई, और वहाँ सर्वानंद भैरव निवास करते हैं। वही स्थान “गायत्री शक्तिपीठ” कहलाता है।

स्थानीय जनश्रुति के अनुसार, एक समय यहाँ एक ग्वाला अपने पशु चराया करता था। एक दिन उसने देखा कि उसकी गाय प्रतिदिन एक ही स्थान पर दूध गिरा देती है। जब उस स्थान की खुदाई की गई, तो वहाँ से एक तेजस्वी मूर्ति प्रकट हुई,वही गायत्री माता की प्रतिमा थी। तब से यह स्थान पूजनीय बन गया। लोग मानते हैं कि यहाँ सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती है।

यह शक्तिपीठ केवल पूजा का नहीं है, बल्कि एक जीवन-दर्शन का प्रतीक है। यह सिखाता है कि भक्ति और बुद्धि का समन्वय ही पूर्णता है। कर्म और ध्यान एक-दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान ही सच्ची मुक्ति का मार्ग है। माता गायत्री अपने साधकों को यह प्रेरणा देती हैं कि वे जीवन में सतत् जागरूक रहें, अपने कर्मों को पवित्र रखें और मन को शुद्ध करें।

गायत्री शक्तिपीठ, पुष्कर न केवल एक प्राचीन तीर्थ है, बल्कि यह ज्ञान, ऊर्जा और साधना का अखंड स्रोत है। यहाँ की प्रत्येक ध्वनि, प्रत्येक वायु की लहर, और प्रत्येक दीपक मानो यह कहता है कि “ज्ञान ही ब्रह्म है, और ब्रह्म ही शक्ति है।” जो साधक गायत्री माता के चरणों में समर्पित होकर यहाँ साधना करता है, उसे जीवन में सदैव प्रकाश का मार्ग मिलता है।



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