“काली शक्तिपीठ” (देवी सती का बायाँ नितंब गिरा था)

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना 

भारत की पवित्र धरती अनादिकाल से ही देवी-देवताओं की लीलास्थली रहा है। यहाँ हर पर्वत, हर नदी, हर वृक्ष और हर धूलकण में दिव्यता बसती है। इन्हीं पावन स्थलों में से एक है अमरकंटक का “काली शक्तिपीठ”, जो मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिला में स्थित है। यह स्थान केवल एक धार्मिक तीर्थ ही नहीं है, बल्कि देवी माँ की अनुपम शक्ति, साधना और रहस्य का केंद्र भी है।

अमरकंटक वैसे भी तीन पवित्र नदियों नर्मदा, सोन और जोहिला का उद्गम स्थल है। किंतु इसी तीर्थभूमि के निकट कालमाधव क्षेत्र में स्थित वह गुफा, जहाँ माँ सती का बायाँ नितंब गिरा था, एक अनोखा ऊर्जा-केंद्र है। यहाँ देवी काली के रूप में विराजती हैं और उनके साथ असितांग भैरव की उपस्थिति इस पीठ को पूर्ण बनाती है।

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने सती के जले हुए शरीर को खंड-खंड कर सुदर्शन चक्र से विभाजित किया, तब माँ के 51 अंग पृथ्वी पर अलग-अलग स्थानों पर गिरा जहाँ-जहाँ यह अंग गिरा, वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई।

“काली शक्तिपीठ” इन्हीं पावन स्थलों में से एक है, जहाँ सती का बायाँ नितंब गिरा था। इस कारण यह स्थान देवी के काली स्वरूप से जुड़ा है, जो संहार और सृजन की अद्वितीय संगति को दर्शाता है। यह पीठ न केवल तांत्रिक साधना का एक महान केंद्र है, बल्कि आत्मशुद्धि और मुक्ति का द्वार भी है।

देवी काली का स्वरूप अपने आप में रहस्यमयी है। उनका शरीर काला है, परंतु वह अंधकार नहीं है, बल्कि उस अंधकार के भीतर का परम ज्योतिर्मय सत्य है। काली काल की अधिष्ठात्री हैं, वे जन्म-मृत्यु के पार हैं। उनका भयावह रूप दुष्टों के लिए विनाश का प्रतीक है, तो भक्तों के लिए असीम करुणा का सागर।

अमरकंटक की यह काली माँ वही ब्रह्मशक्ति हैं, जिनका नाम ही काल को पराजित कर देता है। स्थानीय किंवदंतियों में कहा जाता है कि यहाँ माँ की मूर्ति के दर्शन से मनुष्य के सारे भय समाप्त हो जाता है और साधक को “नवजीवन” का अनुभव होता है।

अमरकंटक को “तीर्थों का मुकुटमणि” कहा गया है। यह वही स्थल है जहाँ नर्मदा नदी का जन्म हुआ, जिसे “देवी रूपिणी” कहा जाता है। यहाँ के जंगल, पर्वत और जलप्रवाह मानो देवी की उपस्थिति से स्पंदित रहता है। अमरकंटक की ऊँचाइयों पर बसा यह क्षेत्र कालमाधव नामक स्थान से जुड़ा है। शोन नदी (जिसे सोन नदी भी कहते हैं) यहाँ की भूमि को छूते हुए बहती है। इसी नदी के किनारे वह गुफा है, जहाँ माँ काली विराजमान हैं। कहा जाता है कि यह गुफा कभी एक रहस्यमयी द्वार थी, जहाँ साधक ध्यान में बैठते और देवी से सीधा साक्षात्कार करते थे।

जब सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपमान सहन न कर अग्निकुंड में देह त्याग दी, तो भगवान शिव शोकमग्न होकर उनका शरीर लेकर ब्रह्मांड में घूमने लगे। देवता भयभीत हो उठे। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभक्त किया। इन्हीं में से एक भाग “बायाँ नितंब” अमरकंटक की भूमि पर आ गिरा। धरती हिली, नर्मदा का प्रवाह काँप उठा, और उसी क्षण वहाँ से एक भयानक तेज निकला, जिसने रूप लिया काली माता का। कहा जाता है, उनकी गर्जना से संपूर्ण पर्वत क्षेत्र थर्रा उठा। तभी प्रकट हुए असितांग भैरव, जो माँ के रक्षक और संहारक दोनों स्वरूप हैं।

अमरकंटक की यह काली गुफा साधारण स्थान नहीं है। यहाँ प्रवेश करते ही एक अजीब-सी नमी, शांति और ऊर्जात्मक कंपन महसूस होती है। दीवारों पर जलकण झिलमिलाते हैं, और भीतर एक प्राकृतिक शिवलिंग जैसा आकार दिखाई देता है। कहा जाता है कि इस गुफा में अनेकों योगी और तांत्रिकों ने वर्षों तक साधना की, जिनमें कुछ ने समाधि भी प्राप्त की। यहाँ की चट्टानों से अनवरत टपकता जल, माँ के “अमृतरूप” का प्रतीक माना जाता है। स्थानीय संतों के अनुसार, जो व्यक्ति यहाँ एकांत में ‘काली महामंत्र’ का जाप करता है, उसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। रात के समय इस गुफा के समीप दीपक अपने आप जलता है, यह आज भी एक अद्भुत रहस्य है, जिसे विज्ञान भी नहीं सुलझा सका।



कालमाधव का क्षेत्र घने साल, साज और महुआ के जंगलों से घिरा है। यहाँ का वातावरण मानो निरंतर जप करता रहता है। पक्षियों का कलरव, शोन नदी का कलकल संगीत, और धूप की सुनहरी छाया, सब मिलकर यहाँ की साधना को और गहन बनाता है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु कहते हैं कि इस भूमि पर पैर रखते ही मन में एक अजीब शांति उतर आती है। पर्वतों की हवा में शक्ति है, और नदी के जल में भक्ति। यह स्थान उस सांत्वना का स्रोत है, जिसकी तलाश हर साधक करता है।

हर शक्तिपीठ में एक भैरव की उपस्थिति होती है। काली शक्तिपीठ में यह भूमिका निभाते हैं असितांग भैरव। ‘असित’ का अर्थ होता है गहरा काला और ‘अंग’ का अर्थ रूप या अंगभूत तत्व। अर्थात “जो काली के अंग का अभिन्न हिस्सा हैं।” असितांग भैरव यहाँ संरक्षक देवता के रूप में पूजे जाते हैं। कहा जाता है, जो व्यक्ति बिना भैरव की अनुमति के इस शक्तिपीठ में प्रवेश करता है, उसकी साधना अधूरी रहती है। भैरव की मूर्ति यहाँ पत्थर से निर्मित है, और उनकी आँखों में एक अद्भुत तेज दिखाई देता है। वे माँ काली के समान ही रुद्र रूप में हैं, किंतु भक्तों के लिए वे “अभयदाता” माने जाते हैं।

यहाँ नवरात्र, काली पूजा और अमावस्या के अवसर पर विशेष भीड़ होती है। भक्त रात्रि जागरण करते हैं, दीपदान करते हैं, और गुफा में प्रवेश कर माँ के दर्शन करते हैं। नवरात्र के दौरान यहाँ अखंड ज्योति जलती है। साधक “ॐ क्रीं कालिकायै नमः” का जाप करते हुए ध्यान लगाते हैं। कई श्रद्धालु यहाँ तांत्रिक साधनाएँ भी करते हैं, जिन्हें गुरु परंपरा से ही आरंभ करने की अनुमति होती है। स्थानीय पुजारियों के अनुसार, “जो व्यक्ति सच्चे मन से माँ काली की आराधना करता है, उसके सभी संकट दूर होते हैं और वह जीवन में निडर बनता है।”

अमरकंटक का यह काली पीठ भारत के प्राचीन 51 तांत्रिक पीठों में से एक माना जाता है। यहाँ सदियों से तंत्र-मंत्र, योग और ध्यान की परंपरा जीवित है। कहा जाता है कि गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ और कई नाथ सिद्धों ने यहाँ साधना की थी। यह गुफा “तांत्रिक द्वार” कहलाती थी यानि वह स्थान जहाँ भौतिक और आध्यात्मिक लोकों का संगम होता है। यहाँ की मिट्टी, जल और वायु में मंत्रशक्ति का वास बताया जाता है। इसीलिए यहाँ ध्यान करने वाले साधकों को प्रायः तेजस्वी अनुभव होता है, जैसे प्रकाश की झलक, देवी के स्वरूप का दर्शन या गूढ़ अनुभूति।

माँ काली यह सिखाती हैं कि मृत्यु ही जीवन का द्वार है। जो मृत्यु से नहीं डरता, वही सच्चे अर्थों में जीवन जीता है। उनका रूप हमें सिखाता है कि विनाश, सृजन का ही एक चरण है। काली का काला रंग यह बताता है कि ब्रह्मांड की समस्त संभावनाएँ इसी अंधकार से उत्पन्न होती हैं। वह भय से नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर झाँकने की प्रेरणा देती हैं। अमरकंटक की इस गुफा में साधक को यह शिक्षा अनुभव के रूप में मिलती है कि मौन ही सबसे बड़ा मंत्र है, और आत्मा ही परम देवी का साक्षात रूप है।

साधक प्रायः सूर्योदय से पहले यहाँ पहुँचते हैं, और भोर की बेला में गुफा के दर्शन करते हैं। यह समय “काली बेला” कहा जाता है, जब ब्रह्मांडीय ऊर्जा सर्वाधिक सक्रिय होती है।

ग्रामीणों का विश्वास है कि कई बार गुफा से रात्रि में मंद ढोलक की ध्वनि सुनाई देती है, मानो कोई देवी का आह्वान कर रहा हो। कुछ श्रद्धालुओं ने यह भी कहा है कि अमावस्या की रात में गुफा के ऊपर नीले प्रकाश के गोले दिखाई देते हैं। एक प्राचीन कथा के अनुसार, एक बार एक साधक ने माँ काली से प्रत्यक्ष दर्शन की प्रार्थना की। कई वर्षों की साधना के बाद, जब उसने अपने अहंकार को त्याग दिया, तभी गुफा में प्रकाश प्रकट हुआ और माँ ने उसे दर्शन दिए। उसी क्षण से उस साधक का जीवन बदल गया।

काली शक्तिपीठ केवल पूजा स्थल नहीं है, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक है। यहाँ हर वर्ष देशभर से साधु, संत, तांत्रिक, और विद्वान आते हैं। वे यहाँ काली साधना के गूढ़ रहस्यों पर चर्चा करते हैं, और अपने अनुभव साझा करते हैं। स्थानीय जनजातियाँ भी माँ काली को अपनी “भूमि देवी” मानती हैं। वे फसल कटाई के समय यहाँ पूजा अर्पित करते हैं और देवी से आशीर्वाद लेते हैं। इस प्रकार, यह स्थान लोक और शास्त्र दोनों की संगमभूमि बन गया है।

माँ काली की उपासना केवल भय या संहार से जुड़ी नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के अंतर्मन की शुद्धि का माध्यम है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति श्रद्धा से उनका नाम लेता है, उसके सभी भय नष्ट हो जाता है। नकारात्मक शक्तियाँ दूर रहती हैं। जीवन में साहस और आत्मविश्वास बढ़ता है। साधक को मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।

यहाँ आने वाले साधक प्रायः “क्रीं” बीजमंत्र का जाप करते हैं। एक सामान्य विधि है कि गुफा के बाहर बैठकर पूर्वमुख होकर ध्यान लगाएँ। “ॐ क्रीं कालिकायै नमः” का 108 बार जाप करें। दीपक जलाकर माँ से संवाद करने का प्रयास करें और भैरव को प्रणाम अवश्य करें। कहा जाता है, यदि साधक यह साधना नवरात्र या अमावस्या को करता है, तो उसे शीघ्र फल प्राप्त होता है।

जो भी श्रद्धालु इस शक्तिपीठ पर आता है, वह एक अद्भुत परिवर्तन महसूस करता है। यहाँ की वायु में ऐसी ऊर्जा है, जो मन की उदासी और भय को पल भर में मिटा देती है। कई भक्तों ने बताया कि काली गुफा से निकलते समय उन्हें एक हल्कापन और दिव्य प्रसन्नता का अनुभव होता है,  मानो सारे बंधन टूट गए हों। यह अनुभव बताता है कि माँ काली केवल बाहरी शक्ति नहीं है, बल्कि भीतर की चेतना हैं, जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती हैं।

अमरकंटक का काली शक्तिपीठ भारत की अविचल आस्था, तांत्रिक परंपरा और देवी उपासना का जीवंत प्रमाण है। यह स्थान सिखाता है कि सृष्टि का संतुलन विनाश और सृजन, दोनों के सामंजस्य में है। माँ काली यहाँ केवल एक मूर्ति नहीं है, बल्कि सर्वव्यापक चेतना के रूप में विराजती हैं। जो भी श्रद्धा से उनके द्वार पर आता है, वह न केवल भयमुक्त होता है, बल्कि आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हो जाता है।



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