1965 का भारत-पाक युद्ध इतिहास में भारतीय वीरता, एकता और कुशल नेतृत्व का प्रतीक है। यह सिर्फ एक सैन्य संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारतीय आत्मबल, कूटनीति और नेतृत्व की परीक्षा थी – जिसमें भारत न केवल खरा उतरा, बल्कि विजयी भी हुआ। इस ऐतिहासिक जीत के पीछे जो व्यक्तित्व सबसे अधिक चमका, वह थे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री।
युद्ध की पृष्ठभूमि
1965 का युद्ध कश्मीर मुद्दे को लेकर हुआ था। पाकिस्तान ने 'ऑपरेशन जिब्राल्टर' के तहत कश्मीर में घुसपैठ कर अशांति फैलाने की कोशिश की। उन्हें विश्वास था कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ उठ खड़ी होगी, लेकिन उनका यह भ्रम जल्द ही टूट गया।
पाकिस्तान को उम्मीद नहीं थी कि भारत इतनी सख्ती से जवाब देगा। परंतु भारत ने पूरी ताकत से पलटवार किया। भारतीय सेना ने न सिर्फ घुसपैठियों को खदेड़ा, बल्कि लाहौर और सियालकोट जैसे क्षेत्रों में भी जवाबी कार्रवाई की। यह स्पष्ट संकेत था कि भारत अपनी संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेगा।
लाल बहादुर शास्त्री जी का नेतृत्व
"जय जवान, जय किसान" — यह नारा शास्त्री जी ने केवल कहने भर के लिए नहीं दिया था, बल्कि इसे उन्होंने जिया और भारत को जिता भी दिया।
शास्त्री जी का कद नेहरू जी जितना लंबा भले न हो, पर उनका संकल्प पहाड़ से भी ऊँचा था। उन्होंने देश को एकजुट किया, सेना का मनोबल बढ़ाया और दुनिया को दिखा दिया कि भारत न तो किसी से डरता है, और न ही किसी पर अत्याचार करता है — लेकिन यदि किसी ने आँख दिखाई, तो भारत चुप नहीं बैठेगा।
शास्त्री जी ने युद्ध के समय तीन अहम काम किए:
राजनीतिक नेतृत्व: संसद और जनता को एकजुट किया। देश में rationing लागू की, ताकि सैनिकों को ज़रूरी संसाधन मिल सकें।
सेना को खुली छूट दी: उन्होंने सेना को भरोसा दिलाया कि सरकार उनके साथ है, और जो भी निर्णय ज़रूरी हो, वो लिया जाए।
अंतरराष्ट्रीय कूटनीति: उन्होंने ताशकंद समझौते के जरिए यह दिखाया कि भारत युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर थोप दिया गया, तो जवाब ज़रूर देगा।
सेना का पराक्रम
इस युद्ध में भारतीय सेना ने अद्भुत शौर्य दिखाया। हजिपीर पास और खेमकरण में हमारे जवानों ने जो वीरता दिखाई, वह आज भी सैन्य इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। पाकिस्तानी सेना के पैटन टैंकों को भारतीय जवानों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर ध्वस्त किया।
परिणाम और प्रभाव
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पाकिस्तान को भारी सैन्य और रणनीतिक नुकसान हुआ।
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संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप से युद्ध रुका, लेकिन भारत की प्रतिष्ठा अंतरराष्ट्रीय मंच पर काफी बढ़ी।
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शास्त्री जी की छवि एक दृढ़, ईमानदार और साहसी नेता के रूप में उभरी।
शास्त्री जी की विरासत
1966 में ताशकंद समझौते के दौरान शास्त्री जी का निधन हो गया। पर उन्होंने जो विरासत छोड़ी, वह आज भी प्रेरणादायक है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चे नेतृत्व के लिए न तो ऊँचा कद चाहिए, न ही भारी भरकम भाषण — सिर्फ नीयत साफ होनी चाहिए और देश के लिए समर्पण होना चाहिए।
1965 की जीत केवल सैनिकों की नहीं थी — यह एकजुट भारत की थी। यह शास्त्री जी के नेतृत्व की थी, जिन्होंने सादगी, ईमानदारी और अदम्य साहस के साथ देश का मार्गदर्शन किया। आज भी जब हम ‘जय जवान, जय किसान’ सुनते हैं, तो हमें याद आता है वो छोटा कद वाला बड़ा नेता, जिसने भारत को गौरव दिलाया।
भारत माँ के उस सच्चे सपूत को शत-शत नमन।
