संघर्ष, समर्पण और स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति की प्रेरणादायक यात्रा

Jitendra Kumar Sinha
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भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अनेक नायकों में से एक ऐसा नाम है, जो न केवल राजनीति में बल्कि शिक्षाविद्, समाजसेवक और संविधान निर्माता के रूप में भी अमिट छाप छोड़ गया — वह नाम है डॉ. राजेन्द्र प्रसाद। वे भारतीय गणराज्य के पहले राष्ट्रपति बने, लेकिन उस गौरवशाली पद तक पहुँचने का उनका सफर आसान नहीं था। यह संघर्षों, त्याग, तपस्या और राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण से भरा हुआ था। राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को ज़ीरादेई, बिहार में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता एक संस्कृत विद्वान थे और माँ धर्मपरायण महिला। 


बचपन से ही वे अत्यंत मेधावी थे। पढ़ाई में उनकी लगन का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा में बैठे, तो परीक्षक ने उत्तर-पुस्तिका देखकर कहा — "Examinee is better than the examiner." उन्होंने कानून, अर्थशास्त्र और अंग्रेजी साहित्य में दक्षता प्राप्त की और कलकत्ता विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की। बाद में उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की और एक सफल वकील के रूप में अपना करियर शुरू किया।


राजेन्द्र बाबू की असली पहचान वकालत की दुनिया में नहीं, बल्कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए स्वतंत्रता आंदोलन में सामने आई। 1917 में चंपारण सत्याग्रह के समय वे गांधी जी से जुड़े और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। असहयोग आंदोलन (1920) में उन्होंने अपनी वकालत छोड़ दी — एक ऐसा फैसला जो उनके समर्पण को दर्शाता है। नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया और कई बार जेल गए। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने और कठिन परिस्थितियों में संगठन को मजबूती प्रदान की।


आज जो भारत का संविधान है, उसका निर्माण संविधान सभा के माध्यम से हुआ। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उस सभा के अध्यक्ष थे। उन्होंने बड़े संयम, ज्ञान और दूरदर्शिता के साथ सभा का संचालन किया और एक ऐसा संविधान तैयार करवाया, जो विविधताओं से भरे देश को एक सूत्र में बांध सके। 26 जनवरी 1950 को जब भारत एक गणराज्य बना, तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का पहला राष्ट्रपति चुना गया। उन्होंने 1950 से 1962 तक दो बार राष्ट्रपति पद संभाला — और आज तक वे सबसे लंबे समय तक राष्ट्रपति रहने वाले व्यक्ति हैं।


राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन्होंने गंभीरता, गरिमा और निष्पक्षता के साथ संविधान की रक्षा की। वे राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र के लिए कार्य करते रहे। उन्होंने अपने आचरण से राष्ट्रपति पद की गरिमा को नई ऊँचाई दी।


डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जीवन पूरी तरह सादगी और ईमानदारी से भरा था। राष्ट्रपति बनने के बावजूद वे ज़मीन से जुड़े रहे। कहा जाता है कि जब वे राष्ट्रपति बने, तो उनके रिश्तेदारों के सरकारी खर्च पर दिल्ली आने पर उन्होंने नाराज़गी जताई और सबको वापस भेज दिया। उनके चरित्र की एक मिसाल यह है कि जब उनका राष्ट्रपति कार्यकाल समाप्त हुआ, तो वे अपने गाँव लौट गए और सरकारी पेंशन लेने से भी इनकार कर दिया।


डॉ. राजेन्द्र प्रसाद न केवल भारत के पहले राष्ट्रपति थे, बल्कि वे भारतीय मूल्यों, त्याग और आदर्शों के प्रतीक थे। उनका जीवन एक प्रेरणा है — कि सच्चा नेता वही होता है जो पद से नहीं, अपने कर्म और सेवा से महान बनता है। 

आज जब हम लोकतंत्र और संविधान की बात करते हैं, तो हमें उस शिल्पकार को याद करना चाहिए जिसने इसकी नींव रखी 

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