भारत के राज्यों के पुनर्गठन की कहानी अपने आप में बहुत दिलचस्प और भावनात्मक है। ऐसी ही एक अहम कहानी है बिहार और झारखंड के बंटवारे की — जिसमें भूगोल से ज़्यादा समाज, संस्कृति, संसाधनों और राजनीतिक संघर्ष का बड़ा योगदान रहा। झारखंड राज्य का निर्माण सिर्फ एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि यह आदिवासी पहचान, क्षेत्रीय असंतुलन और लंबे संघर्ष की परिणति थी। झारखंड क्षेत्र में सदियों से आदिवासी समुदाय निवास करते आए हैं, जैसे मुंडा, संथाल, हो, उरांव आदि। ये लोग जंगल, पहाड़ और नदियों से जुड़े जीवन जीते हैं। उनके रीति-रिवाज़, बोली-बानी, खान-पान और सोच बिहार के मैदानी इलाकों से काफ़ी अलग थे। हालाँकि ये क्षेत्र खनिजों, कोयले, वन संपदा और जल संसाधनों से समृद्ध था, परंतु यहां के लोग विकास से वंचित थे। रांची, धनबाद, बोकारो और जमशेदपुर जैसे औद्योगिक केंद्र बने जरूर, पर वहाँ काम करने वाले और फ़ायदा उठाने वाले ज़्यादातर लोग बाहरी थे।
1950 के दशक से ही झारखंड को एक अलग राज्य का दर्जा देने की माँग उठने लगी थी। 1960 में झारखंड पार्टी ने बाकायदा इस माँग को राजनीतिक रूप से उठाया। लेकिन यह सपना जल्द पूरा नहीं हो सका। कई सरकारें आईं और गईं, मगर झारखंड की माँग हर बार या तो टाल दी गई या अनदेखी कर दी गई। झारखंड की जनता और वहाँ के नेताओं को यह महसूस होता रहा कि उनका आर्थिक शोषण हो रहा है — खनिज निकलते हैं, फैक्ट्रियाँ लगती हैं, मगर स्थानीय लोगों को रोज़गार नहीं मिलता और इलाके पिछड़े रह जाते हैं। इस असंतोष ने धीरे-धीरे आंदोलन का रूप लिया।
1980 और 90 के दशक में झारखंड मुक्ति मोर्चा और अन्य संगठनों ने इस आंदोलन को ज़ोरदार बनाया। शिबू सोरेन जैसे नेताओं ने इस मुद्दे को संसद और सड़कों दोनों पर उठाया। झारखंड की माँग अब एक जन-आंदोलन बन गई थी। केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ता गया, और आखिरकार 2 अगस्त 2000 को संसद में 'झारखंड पुनर्गठन विधेयक' पास हुआ। 15 नवंबर 2000 को झारखंड को भारत के 28वें राज्य के रूप में आधिकारिक रूप से बिहार से अलग कर दिया गया। यह तारीख संयोगवश बिरसा मुंडा की जयंती भी है — जो कि झारखंड के गौरव और आदिवासी संघर्ष का प्रतीक हैं।
बिहार और झारखंड का यह बंटवारा भावनात्मक भी था और राजनीतिक भी। बिहार ने झारखंड के जंगल, खनिज और कई औद्योगिक ज़िले खो दिए, लेकिन साथ ही उसने अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश भी शुरू की। वहीं झारखंड को अपने सपनों को साकार करने का मौका मिला, मगर प्रशासनिक अनुभव की कमी और नेतृत्व की खींचतान ने विकास की रफ्तार को कई बार धीमा किया।
आज दोनों राज्य अपनी राह पर चल रहे हैं। बिहार शिक्षा, आधारभूत संरचना और सुशासन की ओर बढ़ रहा है, वहीं झारखंड अपने प्राकृतिक संसाधनों और सांस्कृतिक पहचान को आधार बनाकर विकास की ओर अग्रसर है। झारखंड का निर्माण सिर्फ एक नक्शे की लकीर नहीं थी, बल्कि यह भारत के संघीय ढांचे में एक नई आवाज़ को पहचान देने का प्रतीक था।