काजी अब्दुल वदूद - एक प्रेरणास्पद स्मरण

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरोहर में कुछ नाम ऐसे होते हैं जिनकी उपस्थिति युगों तक प्रेरणा देती है। काजी अब्दुल वदूद उन्हीं विभूतियों में से एक हैं, जिनका जीवन न केवल उर्दू और फारसी साहित्य को समर्पित था, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन, सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना के लिए भी उन्होंने अथक प्रयास किए। 

काजी अब्दुल वदूद का जन्म 8 मई 1896 को पटना के एक धार्मिक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके घर में धार्मिक वातावरण था और यही कारण था कि मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने कुरआन शरीफ को कंठस्थ कर लिया था। बाल्यकाल से ही उनमें एक असाधारण मेधा और गहन आत्मचिंतन की प्रवृत्ति देखी जाती थी। 

काजी अब्दुल वदूद की प्रारंभिक धार्मिक शिक्षा के पश्चात उन्हें औपचारिक शिक्षा के लिए अलीगढ़ भेजा गया। यह वही समय था जब भारत में मुस्लिम नवजागरण का केंद्र अलीगढ़ बन चुका था। यहां की शिक्षाओं ने उनके भीतर राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक जागरूकता की चिंगारी प्रज्वलित की। अलीगढ़ के पश्चात उन्होंने लंदन स्थित बिलग्रामी टिटोरियल स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। 1923 में वे इंग्लैंड गए जहां उन्होंने अर्थशास्त्र, इतिहास और राजनीति शास्त्र में ट्राईपी की और वकालत की उपाधि प्राप्त की। लंदन में बिताए गए सात वर्षों ने उनकी दृष्टि को वैश्विक बना दिया और उनका वैचारिक संसार और भी व्यापक हो गया।

लंदन प्रवास के दौरान काजी अब्दुल वदूद की मुलाकात पंडित जवाहरलाल नेहरू से हुई, जो उनके राजनीतिक जीवन की दिशा बदलने वाली घटना बनी। वहीं, भारत लौटने के बाद वे लाला लाजपत राय के नेतृत्व में आयोजित कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए, जहां असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। काजी अब्दुल वदूद इस आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़े और जल्द ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के सदस्य बने। उनका नेतृत्व कौशल और वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें प्रदेश कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति तक ले गया।

भारत की स्वतंत्रता के लिए चल रहे आंदोलनों में काजी अब्दुल वदूद एक निडर सिपाही के रूप में सक्रिय थे। वे कई राष्ट्रीय सम्मेलनों में शामिल हुए, जिनमें से एक विशेष सम्मेलन था जिसमें अध्यक्षता पंडित मदन मोहन मालवीय ने की थी। इस सम्मेलन में युवा काजी ने स्वतंत्रता की लौ को अपने भीतर प्रज्वलित किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था “धरती, धर्म और संस्कृति की रक्षा हर भारतीय का कर्तव्य है।” यही संकल्प उन्हें एक प्रतिबद्ध राष्ट्रभक्त के रूप में परिभाषित करता है।

काजी अब्दुल वदूद का नाम उर्दू साहित्य में एक प्रामाणिक विद्वान के रूप में लिया जाता है। उन्होंने शोध के क्षेत्र में अनगिनत उपलब्धियां अर्जित की थी। वे किसी भी विषय पर बोलने से पहले गहन अध्ययन करते थे और सटीक शब्दों में अपनी बात रखते थे। उन्होंने उर्दू भाषा को सम्मान दिलाने और उसकी समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाई। उनके साहित्यिक अवदान को भारत सरकार ने भी मान्यता दी और उन्हें “सर्टिफिकेट ऑफ ऑनर” से सम्मानित किया।

काजी अब्दुल वदूद को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मान मिला, जिसमें भारत सरकार ने उन्हें उर्दू साहित्य में योगदान के लिए “Certificate of Honour”, बिहार और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें अपने सर्वोच्च पुरस्कारों से नवाजा और गालिब इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली ने उन्हें “गालिब अवार्ड” शामिल है।

काजी अब्दुल वदूद एक संवेदनशील, ईमानदार और स्वाभिमानी व्यक्ति व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक समाज सुधारात्मक कार्य किए। वे जाति, धर्म और वर्ग के भेद को नकारते हुए समरसता और मानवता के सिद्धांतों पर विश्वास करते थे। वे समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कट्टरता और रूढ़ियों के विरोधी थे और अपने लेखन एवं सार्वजनिक वक्तव्यों के माध्यम से समाज में सुधार की दिशा में प्रयासरत रहे थे ।

काजी अब्दुल वदूद का पारिवारिक जीवन भी उनके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा था। उनकी पहली शादी किशोरावस्था में हुई थी, लेकिन पत्नी की असामयिक मृत्यु ने उन्हें गहरे शोक में डुबो दिया। बाद में उन्होंने पटना के भंवर पोखर निवासी वकील शाह रसीदुल्ला की पुत्री से विवाह किया। उन्हें एक पुत्र था—काजी मोहम्मद मसूद, जो उनके नाम और विचारों की विरासत को आगे बढ़ाने वाला बना।

25 जनवरी 1984 को काजी अब्दुल वदूद इस नश्वर संसार को अलविदा कह गए, लेकिन उनके विचार, कार्य और योगदान अमर हैं। उन्होंने जिस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र—राजनीति, साहित्य, समाज सेवा—में अपनी उपस्थिति दर्ज की, वह एक आदर्श के रूप में सदा याद किया जाएगा। उनकी लेखनी, उनकी सोच, उनकी निडरता और उनकी जिजीविषा आने वाली पीढ़ियों के लिए पथप्रदर्शक बनी रहेंगी।

काजी अब्दुल वदूद का जीवन केवल एक व्यक्ति की जीवनी नहीं, बल्कि एक युग की गाथा है। वे एक ऐसे युगपुरुष थे, जिन्होंने धर्म, भाषा, संस्कृति, राजनीति और मानवता के क्षेत्र में जो योगदान दिया, वह आज भी प्रासंगिक है। आज के समय में जब समाज पुनः विघटन और कट्टरता के दौर से गुजर रहा है, तब काजी वदूद जैसे व्यक्तित्व हमें सहिष्णुता, समरसता और सेवा का मार्ग दिखाता हैं। उनका जीवन सिखाता है कि सच्ची देशभक्ति न केवल आंदोलनों में भाग लेने में है, बल्कि भाषा, संस्कृति और मानवता की सेवा करने में भी है।

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