भारत में धार्मिक नेतृत्व अक्सर सामाजिक सौहार्द बनाए रखने की बात करता है, लेकिन जब कोई मज़हबी नेता आतंक के खिलाफ खुलकर बोलता है और कठोर फतवा जारी करता है, तो वह न केवल धार्मिक बल्कि राष्ट्रीय चेतना को भी जाग्रत करता है। ग्वालियर से आई यह खबर ऐसे ही एक ऐतिहासिक बयान की गवाही देती है, जब ऑल इंडिया इमाम ऑर्गेनाइजेशन के चीफ इमाम डॉ. उमर अहमद इलियासी ने आतंकियों के खिलाफ सख्त रुख अपनाते हुए कहा है कि "आतंकी के जनाजे की नमाज नहीं पढ़ी जाएगी और भारत की जमीन पर उसे दफनाया नहीं जाएगा।"
डॉ. उमर अहमद इलियासी ने जो फतवा जारी किया है, वह एक अहम धार्मिक और सामाजिक संदेश है। इस्लाम शांति और मानवता का धर्म है, लेकिन कुछ आतंकी संगठनों ने इसकी शिक्षाओं को तोड़-मरोड़ कर हिंसा का औजार बना लिया है। ऐसे में जब देश के एक शीर्ष मुस्लिम धर्मगुरु यह कहते हैं कि "जो लोग आतंक का रास्ता चुनते हैं, वे इस्लाम के असली रास्ते से भटक गए हैं। ऐसे लोगों को मरने के बाद भी मज़हबी सम्मान नहीं दिया जाएगा।" यह बयान उन ताकतों के लिए एक करारा जवाब है जो धर्म की आड़ में नफरत फैलाने का काम करते हैं।
ऑल इंडिया इमाम ऑर्गेनाइजेशन के चीफ इमाम ने लव जिहाद के मुद्दे पर भी अपनी बात स्पष्ट रूप से रखी है। उन्होंने कहा है कि "जो शादियां समाज की स्वीकृति से होती हैं, उनमें बरकत होती है। लेकिन जो रिश्ते फसाद और धोखे पर टिके हों, उनसे परहेज जरूरी है।" यह बयान न सिर्फ कट्टरपंथी सोच पर चोट करता है, बल्कि सामाजिक सौहार्द और पारिवारिक मूल्यों की पैरवी भी करता है। धर्म की मर्यादा में रहकर अगर कोई रिश्ता बनता है तो वह स्वीकार्य है, लेकिन जब धार्मिक छल, धोखा और सांप्रदायिक मकसद से ऐसा किया जाए, तो उसे मज़हब का हिस्सा नहीं माना जा सकता।
डॉ. उमर अहमद इलियासी ने कहा है कि आतंकियों को भारत की जमीन पर दफनाने की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। यह कदम केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्मान की दृष्टि से भी अहम है। यह संदेश आतंक के समर्थकों और उसके आकाओं के लिए भी स्पष्ट संकेत है कि "भारत एक मज़बूत राष्ट्र है, जहां मज़हब की आड़ में आतंक के लिए कोई जगह नहीं है।" यह निर्णय उन परिवारों के लिए भी सांत्वना का कार्य करेगा जिन्होंने आतंक की चपेट में आकर अपने प्रियजनों को खोया है।
यह फतवा केवल एक बयान नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए एक चेतावनी है कि मज़हब के नाम पर आतंक को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। धार्मिक नेताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे समाज को दिशा दें, न कि भटकाएं। डॉ. उमर अहमद इलियासी जैसे प्रभावशाली नेताओं की ओर से आए ऐसे बयान समाज में विश्वास, एकता और सुरक्षा की भावना को मजबूत करता हैं।
आतंक का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब कोई धर्म विशेष बदनाम होता है तो सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी उसी धर्म के नेताओं की बनती है कि वे साफ़ करें कि इस्लाम तलवार का नहीं, कलम का धर्म है। पैगंबर मोहम्मद साहब ने हमेशा अमन, भाईचारे और इंसाफ की बात की। किसी बेगुनाह की हत्या पूरे इंसानियत की हत्या के बराबर है। डॉ. इलियासी का फतवा इस वास्तविकता की पुनः पुष्टि करता है।
इस फतवे को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से देखने की बजाय एक सामाजिक-सुरक्षात्मक नीति के रूप में भी देखा जाना चाहिए। अब जरूरी हो गया है कि सरकार ऐसे फतवों का स्वागत करे और उन्हें सुरक्षा नीति में शामिल करने पर विचार करे। शिक्षा संस्थानों, मस्जिदों और मदरसों में आतंकी विचारधाराओं के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाए जाएं। युवाओं को गुमराह करने वाली ताकतों पर कानूनी शिकंजा कसा जाए।