नवरात्रि के दौरान जब दस महाविद्याओं की आराधना की जाती है, तब देवी भैरवी का स्थान एक रहस्यमयी और उग्र रूप में सामने आता है। यह देवी शक्ति का वह रूप है जो न केवल रक्षण करती हैं, बल्कि साधक के भीतर की तमाम नकारात्मकताओं का विनाश कर उसे आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती हैं। भैरवी, जिन्हें तांत्रिक साधना की ‘तपशक्ति’ कहा जाता है, आत्मज्ञान का वह दीपक है जो अंधकार में भी दिशा दिखाती हैं।
भैरवी देवी का स्वरूप अत्यंत उग्र, प्रचंड और तेजोमय है। उनकी प्रतिमा में उन्हें रक्तवर्ण कहा गया है अर्थात उनका शरीर रक्त के समान लाल है। यह रक्तवर्ण न केवल युद्ध का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा, शक्ति, और साहस का भी प्रतिनिधित्व करता है।
उनके हाथों में त्रिशूल (त्रिगुणों का विनाश), खड्ग (अज्ञान का नाश), और कभी-कभी मुण्डमाला (मृत्यु पर विजय) दिखाई देती है। भैरवी देवी श्मशान में बैठी हुई भैरवी तात्त्विक रूप से यह दर्शाती हैं कि वह मृत्यु से परे हैं और केवल साधक के भीतर की नश्वरता को ही समाप्त करती हैं। उनके नेत्र तेजस्वी हैं, जो साधक को उसकी अंतरात्मा से साक्षात्कार कराते हैं।
भैरवी को तांत्रिक साधना का हृदय कहा गया है। वे केवल क्रियात्मक शक्ति नहीं हैं, बल्कि साधक के साधना की रक्षक भी हैं। तंत्र शास्त्र में उन्हें तीन रूपों में देखा जाता है। काली भैरवी- मृत्यु और विनाश का रूप, तारा भैरवी- संरक्षण और करुणा की मूर्ति, राजराजेश्वरी भैरवी- सृष्टि की समग्र शक्ति।
तंत्र के अनुसार, भैरवी वह देवी हैं जो चक्रों को जाग्रत करती हैं, विशेष रूप से मूलाधार और आज्ञा चक्र के बीच की ऊर्जा को नियंत्रित करती हैं।
भैरवी की साधना साधक को आत्मज्ञान की ओर ले जाती है। लेकिन यह कोई सामान्य पूजा नहीं है। इसमें ‘तप’, ‘नियम’, ‘त्याग’ और ‘समर्पण’ अनिवार्य हैं। विशेष रूप से अष्टमी, नवमी, या अमावस्या की रात को उपयुक्त काल माना जाता है। स्थान में श्मशान या एकांत स्थान में की गई साधना अधिक प्रभावी होती है। भैरवी देवी का मंत्र है-
“ॐ ऐं ह्रीं भैरव्यै नमः” यह मंत्र 108 या 1008 बार जपना चाहिए।
भैरवी देवी की साधना करने से आत्म साक्षात्कार, शत्रु नाश, भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति, मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शुद्धि, विलक्षण साहस और निर्णय क्षमता की प्राप्ति होती है।
दस महाविद्याओं में देवी भैरवी छठवें स्थान पर आती हैं। वे काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता के बाद आती हैं। जहां काली समय की नियंत्रक हैं, वहीं भैरवी साधक के लिए स्वयं समय से परे जाने का माध्यम बनती हैं।
उनकी विशेषता है काली- समय की अधिष्ठात्री, भैरवी- तप और उग्रता की देवी, तारा- मार्गदर्शक, षोडशी- सौंदर्य और ब्रह्मज्ञान, छिन्नमस्ता- बलिदान का प्रतीक।
भैरवी देवी का श्मशान से जुड़ाव साधारण लोगों को भयभीत कर सकता है, लेकिन साधक इसे एक गूढ़ संकेत के रूप में देखता है। श्मशान वह स्थान है जहां देह का अंत होता है भैरवी वहां आरंभ करती हैं आत्मा की यात्रा।
श्मशान की साधना का रहस्य है मृत्यु के भय से मुक्ति,अहंकार और देहबुद्धि का विनाश, मन को पूर्णतः स्थिर करना और सूक्ष्म जगत से संवाद की क्षमता।
भैरवी के त्रिशूल का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है। यह त्रिशूल हमारे भीतर के तीन दोष, तमस (अज्ञान), रजस (वासनाएं), और सत्व (अहंकारजन्य पवित्रता), का विनाश करता है।
भैरवी साधक को निर्विकल्प समाधि की ओर ले जाती हैं, जहां न सत्व है, न रज, न तम केवल शुद्ध ब्रह्मचेतना है।
आज के युग में जब व्यक्ति बाहरी आकर्षण, भौतिकता और मानसिक भ्रमों में उलझा है, तब देवी भैरवी की साधना उसे आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण और आत्म साक्षात्कार की ओर प्रेरित करती है।
उनकी उपासना से निर्णय क्षमता मजबूत होती है। नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है। व्यक्ति को अपने भीतर की शक्ति का बोध होता है। भय, भ्रम और मोह से मुक्ति मिलती है।
भैरवी देवी से जुड़ी अनेक पौराणिक और लोककथाएँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हैं। कुछ प्रसिद्ध कथाओं में आदि शंकराचार्य ने जब भैरवी की साधना की थी, तब उन्होंने कहा कि यह साधना बुद्धि और तर्क से नहीं, केवल समर्पण और अनुभव से संभव है। मान्यता है कि जब सती ने अपने प्राण त्यागे थे, तब शिव ने भैरवी को उत्पन्न किया ताकि वे यज्ञ में जाकर दंड दें। यह भैरवी रौद्र रूप में प्रकट हुई थीं।
भारत में देवी भैरवी के कई प्रसिद्ध मंदिर हैं जहाँ उनकी उपासना की जाती है। प्रमुख मंदिर में भैरव पर्वत (उज्जैन)- यहाँ भैरवी देवी की उपस्थिति शिव के भैरव रूप के साथ मानी जाती है। कामाख्या (असम)- यहाँ की रहस्यमयी तांत्रिक परंपरा में भैरवी की विशेष उपासना होती है। चित्रपुर भैरवी पीठ (कर्नाटक)- दक्षिण भारत में भैरवी साधना का प्रमुख केंद्र है।
देवी भैरवी केवल एक उग्र देवी नहीं हैं; वे ज्ञान, तप, और साधना की मूर्तिमान शक्ति हैं। उनकी साधना, साधक को भयमुक्त बनाकर ब्रह्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। यह साधना आत्मबल प्रदान करती है और जीवन के प्रत्येक पहलू को आध्यात्मिक दृष्टि से देखने की दृष्टि देती है।
वे मृत्यु की देवी नहीं, बल्कि मृत्यु के पार ले जाने वाली शक्ति हैं। उनके त्रिशूल की नोक केवल विनाश का प्रतीक नहीं, बल्कि निर्माण की नई शुरुआत है।
भैरवी को समर्पित एक मंत्रमय प्रार्थना:
जय भैरवी, जगत की माता,
अज्ञान हरणी, शक्ति दाता।
त्रिशूलधारिणी, रक्तवर्णा,
मोह विनाशिनी, ज्ञानकर्णा।
देवी भैरवी की आराधना यदि श्रद्धा, नियम और समर्पण से किया जाए, तो साधक को न केवल जीवन में बल, बुद्धि और विवेक प्राप्त होता है, बल्कि आत्मा को परमात्मा से मिलने का मार्ग भी स्पष्ट होता है।
—---------------