जब हम भारतवर्ष के सांस्कृतिक वैभव और विविधता की बात करते हैं, तब बिहार जैसे प्राचीन प्रदेश की भूमि, जिसने वेदों की ध्वनि से लेकर महात्मा बुद्ध की तपोभूमि तक अनेक आयामों को समेटा है, उसमें कुछ ऐसी लोक परम्पराएं भी जीवित हैं, जो न केवल अद्भुत हैं, बल्कि आधुनिकता की भीड़ में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए हुए हैं। ऐसी ही एक परम्परा को जीवंत करता है बिहार के बक्सर जिला का "गंगौली" गाँव। यह गाँव न केवल अपने नियमों और जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि मृत्यु से जुड़ी ऐसी परम्परा के लिए भी जाना जाता है जो पूरे भारत में बिरले ही देखने को मिलता है।
यह प्राचीन परंपरा और सामाजिक अनुशासन का वह जीवित उदाहरण है, जहाँ न तो मृत्यु पर श्मशान की चिता सजती है, न ही वधस्थल में शोरगुल होता है। यहाँ के लोग मानते हैं कि अंतिम संस्कार की अग्नि के बाद जल ही मुक्ति का द्वार है। सिमरी प्रखंड से लगभग 12 किलोमीटर दूर, गंगा के तट पर बसे इस गाँव में एक ऐसी आध्यात्मिक चेतना प्रवाहित होता है, जो भौतिक जीवन की तमाम सीमाओं से परे है।
गंगौली गाँव की यह परंपरा लगभग 150 वर्ष पुरानी है। इसका प्रारंभ एक बाल-संन्यासी "हरेराम ब्रह्मचारी" से जुड़ा है, जिन्होंने गाँव के विकट संकटों से उबरने के लिए तीन प्रमुख नियमों का प्रतिपादन किया था। उस समय यह गाँव गंगा नदी के तीव्र कटाव और बार-बार लगने वाली भीषण आग से त्रस्त था। लोग गाँव छोड़कर पलायन करने को विवश थे। ऐसे में हरेराम ब्रह्मचारी एक दिव्य ज्योति बनकर गाँव आए और तपोबल से न केवल गंगा के प्रवाह की दिशा बदल दी, बल्कि तीन ऐसे नियमों की नींव रखी, जिनका पालन आज भी पूरे गाँव के लोग पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा से करते हैं।
भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अनुसार, मृत्यु के बाद शव को अग्नि को समर्पित करना अंतिम संस्कार की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है। लेकिन गंगौली में मृत्यु के बाद शरीर को केवल मुखाग्नि दी जाती है और फिर उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है। यह प्रथा सभी धर्मों के लोगों के लिए समान रूप से लागू है। चाहे वह गाँव का कोई भी व्यक्ति हो- ब्राह्मण, यादव, कायस्थ, महादलित या मुस्लिम, सभी के मृत शरीर को जलाया नहीं जाता है। यह नियम यहाँ सामाजिक समरसता और पर्यावरणीय संरक्षण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इससे जहाँ एक ओर लकड़ी की बचत होती है, वहीं दूसरी ओर गंगा में प्रवाहित शव को आत्मा की पूर्ण मुक्ति का माध्यम माना जाता है।
गाँव में गाय को गौमाता मानकर पूजा किया जाता है, और यहाँ यदि कोई गाय नर बछड़े को जन्म देती है तो उसका बंध्याकरण नहीं किया जाता है। यह परंपरा सीधे-सीधे ग्रामीणों की पशु-प्रेम, धार्मिक भावना और प्रकृति के प्रति सम्मान को दर्शाता है। आधुनिक कृषि व्यवस्था में जहाँ बछड़ों को अनुपयोगी मानकर उनका बंध्याकरण आम बात हो गई है, वहीं गंगौली में यह सोच विपरीत है। उनका मानना है कि जिस पशु ने गाँव को दुग्ध, घी, खाद और खेती में सहायता दी है, उसके संतान को बंध्याकरण से रोकना अधर्म होगा।
इस गाँव की सबसे अनूठी परंपरा यह भी है कि मांसाहारी भोजन को किसी भी घर की चहारदीवारी के भीतर नहीं पकाया जाता है। गाँव के भीतर कोई भी परिवार घर के भीतर मांस नहीं बनाता है। यदि किसी को मांसाहारी भोजन करना हो तो वह घर के बाहर खुले में या किसी अलग स्थान पर इसे पकाता है। इससे गाँव में वातावरण की पवित्रता बनी रहती है, और सामूहिक रूप से एक सात्विक जीवनशैली का पालन किया जाता है।
यह नियम न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि सामूहिक सामाजिक अनुशासन और आपसी विश्वास का भी मिसाल है। इन नियमों ने गंगौली को न केवल प्राकृतिक आपदाओं से बचाया है, बल्कि उसे एक सामाजिक प्रयोगशाला का रूप भी दिया है, जहाँ धर्म, पर्यावरण, संस्कृति और मानवता एक साथ समाहित होता है।
गंगौली गाँव की पहचान केवल इन नियमों से ही नहीं बनी है, बल्कि यह गाँव आज भी सामूहिक चेतना का उत्कृष्ट उदाहरण है। यहाँ के लोग पारस्परिक सहयोग और आत्म-नियंत्रण के मूलमंत्र को जीवन का आधार मानते हैं। यहाँ कोई दिखावा नहीं, कोई अलगाव नहीं। हर जाति, हर धर्म के लोग इन परंपराओं का पालन करते हैं। न तो किसी को मजबूर किया जाता है, न ही किसी पर कोई बाहरी दबाव होता है। यह सब केवल लोक आस्था और परंपरा के आधार पर होता है।
जब ब्रह्मचारी हरेराम का निधन हुआ, तब गाँव एक बार फिर संकट में पड़ा। रहस्यमयी अग्निकांड होने लगा, खेतों में, खलिहानों में, घरों में अचानक आग लगने लगी। एक बार फिर गाँव भय और दहशत के साये में आ गया। तब संत शिरोमणि बिहारी जी महाराज ने गाँव में "अग्नि यज्ञ" का आयोजन करवाया। यह यज्ञ केवल अग्नि शांति के लिए ही नहीं, बल्कि गाँव की चेतना को पुनः जागृत करने के लिए था। यज्ञ के बाद अग्निकांड की घटनाएँ समाप्त हो गईं, और गाँव एक बार फिर अपनी परम्पराओं के साथ संतुलित जीवन जीने लगा।
आज, जब देश के अनेक गाँव शहरीकरण की अंधी दौड़ में अपनी पहचान खोते जा रहा हैं, गंगौली गाँव अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है। यह गाँव पर्यावरण संरक्षण, धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक चेतना का जीवंत उदाहरण है। यहाँ हर पीढ़ी अपने से अगली पीढ़ी को ये परंपराएँ सौंपती है, कोई लिखित दस्तावेज नहीं है, केवल अनुभव, भाव और श्रद्धा का साथ है ।
यह गाँव इस बात का प्रमाण है कि भारत जैसे देश में परम्पराएँ केवल धार्मिक रीति नहीं होतीं, बल्कि एक सामाजिक अनुशासन और संतुलित जीवनशैली का हिस्सा होता है। जहाँ मृत देह भी नदी में प्रवाहित होकर मुक्ति पा लेता है, वहाँ जीवन भी किसी तपोवन की भाँति अनुशासित और सात्विक हो जाता है।
आज जब हम मृत्यु को लेकर आधुनिक तर्कों, औपचारिक प्रक्रियाओं और विज्ञान की कसौटी पर विचार करते हैं, तब गंगौली की यह परंपरा हमें यह सिखाता है कि जीवन और मृत्यु केवल जैविक प्रक्रियाएं नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक भावों से जुड़ी घटनाएं हैं। इस गाँव की परंपराएं केवल आस्था नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक संदेश भी देता हैं- "प्रकृति से मेल करो, पशु से प्रेम करो, और मृत्यु को भी गरिमा के साथ विदा दो।"
गंगौली गाँव कोई पर्यटन स्थल नहीं है, न ही कोई ऐतिहासिक धरोहर जिसके लिए सरकार फंड देती हो। यह गाँव एक जीवंत लोकगाथा है, जहाँ हर घर, हर परिवार, और हर व्यक्ति एक अध्याय है उस संस्कृति का, जो अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। आधुनिकता की दौड़ में जब रिश्ते टूटते हैं, जब धर्म केवल कर्मकांड बन जाता है, तब गंगौली की यह शांति, यह सादगी, और यह संकल्प आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन सकता है।
बक्सर के इस छोटे से गाँव में मृत्यु एक प्रक्रिया नहीं, एक यात्रा है, जल में विलीन होकर ब्रह्मांड से एकाकार होने की, और जीवन एक व्रत है संयम, श्रद्धा और सेवा का। गंगौली, वास्तव में एक ऐसा गाँव है, जहाँ परंपरा और प्रकृति मिलकर रचते हैं एक दिव्य संतुलन, जो शायद पूरी दुनिया को शांति और मानवता का संदेश दे सकता है।
