खजुराहो, यह नाम लेते ही आंखों के सामने एक भव्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर की छवि उभरती है। यह स्थान सदियों से अपने शिल्प, स्थापत्य और कलात्मकता के लिए जाना जाता है। लेकिन अब खजुराहो केवल अपनी कलाकृतियों के लिए ही नहीं, बल्कि फैशन और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी एक नई मिसाल पेश कर रहा है। खजुराहो की बांस से बनी साड़ियां और वस्त्र एक नए युग की शुरुआत कर रहा हैं।
बांस, जिसे आमतौर पर निर्माण कार्य या हस्तशिल्प के लिए जाना जाता है, अब कपड़ा उद्योग में भी क्रांति ला रहा है। खजुराहो के कारीगरों ने इस सामान्य से दिखने वाले पौधे को एक असाधारण वस्त्र में बदल दिया है। बांस से बनी ये साड़ियां, कुर्ते, दुपट्टे और अन्य वस्त्र केवल सौंदर्य की दृष्टि से ही आकर्षक नहीं हैं, बल्कि अपने गुणों के कारण भी लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहा हैं। इन वस्त्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये गर्मियों में ठंडक और सर्दियों में गर्माहट देता हैं, यानि हर मौसम में आरामदायक होता हैं।
बांस के वस्त्रों की यह खासियत इन्हें आम कपड़ों से बिल्कुल अलग बनाती है। इनमें प्राकृतिक एंटी-बैक्टीरियल गुण होते हैं जो त्वचा को संक्रमण से बचाता हैं। यही नहीं, इन कपड़ों को बार-बार आयरन करने की आवश्यकता नहीं होती है। धोने के बाद भी न तो इसके रंग में फर्क पड़ता है और न ही कपड़े की बनावट में। यह टिकाऊ होता हैं और बार-बार उपयोग के बावजूद लंबे समय तक नए जैसे दिखता हैं।
बांस से कपड़ा बनाने की प्रक्रिया जितनी दिलचस्प है, उतनी ही जटिल भी। खजुराहो के वस्त्र व्यवसायी बताते हैं कि इस प्रक्रिया की शुरुआत बांस को बारीकी से छीलने से होती है। इसके बाद इसे विशेष रसायनों में उबालकर रेशों में बदला जाता है। इन रेशों को सामान्य भाषा में ‘लुग्दी’ कहा जाता है। यही लुग्दी आगे चलकर धागे में परिवर्तित होता है, जिससे साड़ियां, कुर्ते और अन्य वस्त्र तैयार किया जाता हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में पर्यावरण का विशेष ध्यान रखा जाता है। न तो किसी कृत्रिम फाइबर का उपयोग होता है और न ही ऐसे रसायनों का जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं। यही कारण है कि यह प्रक्रिया आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता, सस्टेनेबल फैशन, के अनुरूप है। यह फैशन न केवल शरीर के लिए लाभकारी है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी है।
खजुराहो में बांस से बनी साड़ियों की कीमत 200 रुपए से शुरू होकर 3200 रुपए तक जाती हैं। वहीं, कुर्तों की कीमत 100 रुपए से शुरू होती है। यह रेंज इतनी विविध है कि आम व्यक्ति से लेकर विदेशी पर्यटक तक, हर कोई अपनी पसंद के अनुसार कुछ न कुछ खरीद सकता है। यही कारण है कि अब यह उत्पाद केवल स्थानीय बाजार में ही नहीं, बल्कि देशी-विदेशी पर्यटकों में भी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।
बांस के वस्त्रों की लोकप्रियता का एक और बड़ा कारण यह है कि यह जलवायु के अनुसार शरीर को अनुकूल बनाता हैं। गर्मी में ये कपड़े त्वचा को ठंडक प्रदान करता है, जिससे पसीना कम आता है और शरीर में ताजगी बनी रहती है। वहीं सर्दी में यह गर्माहट प्रदान करता है, जिससे शरीर को ठंड से राहत मिलता है। इस विशेषता के कारण यह कपड़ा हर मौसम में पहनने योग्य हैं।
इतना ही नहीं, बांस से बनी वस्तुएं बुनाई की दृष्टि से भी अनूठी हैं। जहां मशीन से बनी एक साड़ी को तैयार होने में 6 से 8 दिन लगते हैं, वहीं हाथ से बुनी साड़ियों को तैयार करने में केवल दो दिन लगते हैं। यह फर्क न केवल कारीगरों की मेहनत को दर्शाता है, बल्कि इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार की भी नई संभावनाएं खुल रही हैं। खजुराहो के कई कारीगर जो पहले केवल पारंपरिक साड़ियों तक सीमित था, अब बांस के वस्त्रों की ओर अग्रसर हो रहा हैं और अपनी रचनात्मकता से इस उद्योग को नया आयाम दे रहा हैं।
इस प्रयास से न केवल खजुराहो के कारीगरों को आर्थिक मजबूती मिल रहा है, बल्कि एक पूरे इको-सिस्टम का निर्माण हो रहा है, जिसमें पर्यावरण, रोजगार, नवाचार और संस्कृति का सामंजस्य देखने को मिलता है। खास बात यह है कि बांस की खेती में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती है और यह बहुत तेजी से बढ़ता है, जिससे यह एक पर्यावरण के लिए अनुकूल विकल्प बन जाता है। इसके साथ ही यह मिट्टी की उर्वरता को भी बनाए रखता है।
आज जब पूरी दुनिया ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है, ऐसे में खजुराहो की यह पहल एक प्रेरणास्रोत बन रही है। बांस से बने कपड़े केवल एक फैशन स्टेटमेंट नहीं हैं, बल्कि यह एक जीवनशैली है, एक ऐसा जीवनशैली जो प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर आगे बढ़ने का संदेश देती है।
पर्यटन के क्षेत्र में भी इसका असर साफ दिखने लगा है। अब खजुराहो आने वाले पर्यटक केवल मंदिरों और मूर्तियों को ही नहीं, बल्कि यहां के स्थानीय उत्पादों, विशेषकर बांस की साड़ियों को देखने और खरीदने में भी रुचि ले रहे हैं। यह रुचि न केवल बाजार को बढ़ावा देती है, बल्कि स्थानीय संस्कृति और हस्तशिल्प को भी वैश्विक मंच पर पहुंचाने में सहायक बन रही है।
आने वाले समय में यदि इस पहल को व्यापक स्तर पर समर्थन और तकनीकी सहायता मिले, तो यह न केवल खजुराहो, बल्कि पूरे देश के लिए एक उदाहरण बन सकता है। इससे न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी, बल्कि भारत के पारंपरिक हस्तशिल्प और कपड़ा उद्योग को भी नया जीवन मिलेगा।
आज जब वैश्विक स्तर पर कपड़ा उद्योग पर पर्यावरणीय दवाब बढ़ रहा है, ऐसे में खजुराहो की बांस साड़ियां एक विकल्प के रूप में सामने आई हैं, एक ऐसा विकल्प जो टिकाऊ भी है, सौंदर्यपूर्ण भी है और लाभकारी भी। यह बदलाव एक बार फिर साबित करता है कि जब परंपरा और नवाचार मिलते हैं, तो न केवल एक नया उत्पाद जन्म लेता है, बल्कि एक नई संस्कृति की शुरुआत भी होती है।
बांस की साड़ी, जो कभी एक प्रयोग के रूप में शुरू हुई थी, आज खजुराहो की पहचान बन चुकी है। यह न केवल फैशन की दुनिया में एक नया ट्रेंड स्थापित कर रही है, बल्कि पर्यावरण-संवेदनशील सोच को भी मजबूती दे रही है। आने वाले समय में यह उम्मीद किया जा सकता है कि भारत के अन्य हिस्सों में भी इस तरह की पहलें शुरू होगी और हमारा देश एक बार फिर अपनी सांस्कृतिक विरासत और पर्यावरणीय जिम्मेदारी का संतुलन साधने में अग्रणी भूमिका निभाएगा।
