मुस्लिम आरक्षण संवैधानिक दायरे में है या नहीं?

Jitendra Kumar Sinha
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भारत में आरक्षण एक संवेदनशील और बहुचर्चित मुद्दा रहा है। यह विषय जब धर्म, जाति और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से जुड़ता है तो संवैधानिक और नैतिक दोनों स्तरों पर तीखी बहस छिड़ जाती है। हाल ही में कर्नाटक सरकार द्वारा "कर्नाटक सार्वजनिक खरीद में पारदर्शिता (संशोधन) विधेयक, 2025" के माध्यम से मुस्लिम समुदाय को सरकारी निर्माण अनुबंधों में 4% आरक्षण देने का प्रयास उसी बहस को पुनर्जीवित कर रहा है।

“कर्नाटक सार्वजनिक खरीद में पारदर्शिता अधिनियम (KTPP Act)” का उद्देश्य सरकारी खरीद में निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करना है। 2025 के संशोधन विधेयक के तहत मुस्लिम समुदाय को ₹2 करोड़ तक के निर्माण अनुबंधों में 4% आरक्षण देने का प्रावधान है। इसका उद्देश्य सरकारी कार्यों में अल्पसंख्यक समुदायों की भागीदारी बढ़ाना बताया गया है। यह विधेयक राज्य की कांग्रेस सरकार द्वारा विधानमंडल में पारित किया गया है।

कर्नाटक के राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने विधेयक को मंजूरी देने से इनकार करते हुए उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लिया है। उनका तर्क है कि यह विधेयक धर्म आधारित आरक्षण का प्रयास है। संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव निषेध) और 16 (सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर) का उल्लंघन करता है। सर्वोच्च न्यायालय पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन होना चाहिए, न कि धार्मिक पहचान।

भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है। अनुच्छेद 15(1) कहता है कि “राज्य किसी नागरिक के साथ केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।” जबकि, अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को विशेष सुविधाएं देने का अधिकार है। यही आधार दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्गों को आरक्षण देने में प्रयोग होता रहा है। धर्म आधारित आरक्षण को लेकर संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, बल्कि इसके विरोध में ही व्याख्या की गई है।

भारत के विभिन्न राज्यों में मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने के प्रयास हुए हैं, जैसे- आंध्र प्रदेश (2004) में वाई.एस.आर. सरकार ने मुसलमानों को 5% आरक्षण देने की कोशिश की थी। लेकिन आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने इसे असंवैधानिक ठहराया। पश्चिम बंगाल और केरल में मुस्लिम समुदाय के पिछड़े वर्गों को OBC की श्रेणी में आरक्षण दिया गया, जो सामाजिक-आर्थिक मापदंड पर आधारित था, न कि धार्मिक पहचान पर। झारखंड और बिहार में कुछ मुस्लिम जातियों को OBC सूची में शामिल किया गया है। लेकिन, स्पष्ट रूप से धर्म के आधार पर आरक्षण देने के प्रयास अक्सर कानूनी अड़चनों में फंसते रहे हैं।

कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय को पहले OBC श्रेणी में 'Category II B' के अंतर्गत 4% आरक्षण प्राप्त था। लेकिन 2023 में भाजपा सरकार ने इसे समाप्त कर दिया और इसे लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों को स्थानांतरित कर दिया। 2024 में कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आते ही इस आरक्षण को पुनर्स्थापित करने की मंशा जताई और उसी क्रम में केटीपीपी संशोधन विधेयक लाया गया। इस प्रकार, यह मुद्दा संवैधानिक से अधिक राजनीतिक रंग ले चुका है।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में धर्म आधारित आरक्षण के प्रति सतर्क दृष्टिकोण अपनाया है। कुछ प्रमुख उदाहरण है इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) - आरक्षण केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर ही दिया जा सकता है, न कि धर्म या जाति मात्र के आधार पर। TMA पाई फाउंडेशन मामला (2002)- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्ष राज्य धार्मिक पहचान को आरक्षण का आधार नहीं बना सकता। आंध्र प्रदेश मुस्लिम आरक्षण केस (2005)- सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर आपत्ति जताई कि सरकार ने पूरी मुस्लिम आबादी को एक साथ 'पिछड़ा' मान लिया। इन निर्णयों में यह बात स्थापित हुई है कि धार्मिक पहचान मात्र, आरक्षण का संवैधानिक आधार नहीं हो सकता है।

यह पहली बार नहीं है कि किसी राज्यपाल ने किसी विधेयक को मंजूरी देने से इनकार किया हो। हाल ही में, तमिलनाडु बनाम राज्यपाल मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है जिसमें राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लंबे समय तक रोककर रखने के खिलाफ याचिका दायर की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल को किसी विधेयक पर 'अनिश्चितकाल' तक विचार नहीं करना चाहिए। कर्नाटक की वर्तमान स्थिति में, राज्य सरकार इस विधेयक को दोबारा भेज चुकी है लेकिन राज्यपाल ने फिर भी इसे राष्ट्रपति को भेज दिया है। यह कार्यपालिका और संवैधानिक प्रमुख के बीच एक अहम संघर्ष को दर्शाता है।

कर्नाटक में मुस्लिम संगठनों का कहना है कि यह आरक्षण धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन पर आधारित है। मुस्लिम ठेकेदारों को वर्षों से सरकारी कामों में अवसर नहीं मिल पाया हैं। यह कदम समान भागीदारी और प्रतिनिधित्व की दिशा में है। दूसरी ओर, कुछ बुद्धिजीवियों और विपक्षी दलों का कहना है कि इससे धर्म के आधार पर भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा। यह सामाजिक समरसता के खिलाफ है।

कांग्रेस सरकार पर आरोप लग रहा है कि वह 2026 के विधानसभा चुनावों की दृष्टि से मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने के लिए यह कदम उठा रही है। भाजपा और जेडीएस ने इसे 'धार्मिक तुष्टिकरण' की राजनीति बताया है। वहीं कांग्रेस का तर्क है कि यह केवल न्यायिक और संवैधानिक तरीके से वंचित समुदायों को आगे लाने का प्रयास है।

संविधान विशेषज्ञों का कहना है कि यदि मुस्लिम समुदाय में कुछ वर्ग सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं तो उन्हें OBC में स्थान दिया जाना चाहिए। लेकिन पूरा समुदाय एक साथ पिछड़ा मानकर धर्म के आधार पर आरक्षण देना संविधान की भावना के विपरीत है। इस मामले को राष्ट्रपति के पास भेजना एक समझदारी भरा कदम है क्योंकि यह एक 'संविधानिक नीति का प्रश्न' है।

अब यह मामला राष्ट्रपति के विचारार्थ है। इसलिए आगे की संभावनाएं ऐसा हो सकता है कि राष्ट्रपति इसे मंजूरी दें तो यह कानून बन जाएगा। अस्वीकृति की स्थिति में राज्य सरकार को या तो संशोधित विधेयक लाना होगा या न्यायिक रास्ता अपनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट पहले से ही ऐसे आरक्षण मामलों पर विचार कर रहा है, इसलिए अंतिम फैसला न्यायपालिका पर ही निर्भर करेगा ऐसा दिखता है। जबकि मूलतः आरक्षण का उद्देश्य था- समान अवसर, सामाजिक न्याय और समावेशी विकास। लेकिन जब आरक्षण धर्म या वोट बैंक के चश्मे से देखा जाता है, तब यह उद्देश्य कमजोर हो जाता है।



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