जब बुजुर्ग मुस्कुराता हैं - तब जीवित रहता है “संस्कार”

Jitendra Kumar Sinha
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बुजुर्गों की मुस्कान किसी साधारण चेहरे का सामान्य भाव नहीं होता है, बल्कि वह आशीर्वाद होता है जो पीढ़ियों को जोड़ता है। उनके अनुभव, उनकी थकी आंखों में बसी कहानी, उनके कांपते हाथों में हमारी जड़ें होती हैं। जब वे मुस्कुराते हैं, तो सिर्फ उनके चेहरे पर उजाला नहीं फैलता है, बल्कि पूरे समाज के संस्कारों की लौ पुनः जल उठती है। लेकिन यह लौ अब धीमी पड़ रही है। हमलोग उस समाज से दूर जा रहे हैं, जो कभी ‘मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः’ जैसे मूल्यों पर गर्व करता था। बुजुर्गों का वर्तमान हाल हमें झकझोरता है और सोचने को मजबूर करता है कि कहीं हमारी प्रगति ने हमारे संस्कारों को पीछे तो नहीं छोड़ दिया?

बीते कुछ दशकों में भारतीय परिवारिक ढांचे में भारी बदलाव आया है। संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवारों ने जगह ले ली है। नौकरी के लिए पलायन, जीवन की आपाधापी और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ने रिश्तों की गर्माहट को ठंडा कर दिया है। पहले जहां दादा-दादी घर की धुरी होते थे, आज उन्हें कोने में रखा एक उपेक्षित पात्र बना दिया गया है।

बुजुर्गों के लिए सबसे बड़ी पीड़ा यह नहीं कि वे असहाय हैं, बल्कि यह है कि वे ‘अनचाहे’ महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनकी बातों को कोई नहीं सुनता, उनकी सलाह को कोई महत्व नहीं देता। अकेलापन उन्हें भीतर से तोड़ देता है, और धीरे-धीरे वे खामोश हो जाते हैं यह खामोशी, जो चीख से भी ज्यादा दर्द देती है।

बुजुर्गों के साथ शारीरिक हिंसा सबसे घृणित और स्पष्ट रूप है। बुजुर्गों को धक्का देना, मारना, या उन्हें बंधक बना लेना, यह सब अपराध की श्रेणी में आता हैं, लेकिन अक्सर इन पर बात नहीं होता है क्योंकि यह घटनाएं घर की चारदीवारी में छुपा रह जाता है।

मौखिक कटाक्ष, बार-बार उन्हें उनकी निर्भरता का एहसास कराना, उन्हें "बोझ" समझना, यह सब मानसिक हिंसा है। ऐसे दुर्व्यवहार के कारण बुजुर्ग आत्मग्लानि, अवसाद और आत्महत्या तक के विचारों में फंस जाता हैं।

बुजुर्गों का पेंशन, संपत्ति, या बचत हड़पना, बिना अनुमति के बैंक खातों से पैसा निकालना, या उन्हें उनकी संपत्ति से बेदखल करना, यह सब आर्थिक शोषण की परिभाषा में आता हैं।

बुजुर्गों को समाजिक आयोजनों से दूर रखना, उनकी सामाजिक पहचान खत्म कर देना, उन्हें ‘घरों में कैद’ कर देना, यह उनके आत्मसम्मान की हत्या है।

हेल्पएज इंडिया की 2023 की रिपोर्ट बताता है कि भारत में हर 2 में से 1 बुजुर्ग को किसी न किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। इनमें से अधिकांश मामलों में दुर्व्यवहार करने वाला कोई और नहीं बल्कि उनका अपना परिवारजन होता है। 63% बुजुर्गों ने मौखिक दुर्व्यवहार की शिकायत की। 29% ने आर्थिक शोषण की बात मानी और 45% ने अकेलापन और सामाजिक उपेक्षा को प्रमुख समस्या बताया।

वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007 के तहत अगर संतान अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करता है, तो बुजुर्ग मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज कर सकता हैं। कोर्ट संतान को भरण-पोषण के आदेश दे सकता है। राष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक नीति (2011) का उद्देश्य बुजुर्गों को गरिमापूर्ण जीवन, स्वास्थ्य सुविधा, सामाजिक सुरक्षा और आत्मनिर्भरता प्रदान करना है। हेल्पलाइन और हेल्पएज इंडिया जैसी गैर-सरकारी संगठन बुजुर्गों को कानूनी, भावनात्मक और चिकित्सा सहायता देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा हैं।

बुजुर्गों की सबसे बड़ी इच्छा यही होता है कि वह अपने बच्चों और पोते-पोतियों के बीच समय बिता सके। वह वृद्धाश्रम नहीं, अपनापन चाहता हैं। घर में उनका होना केवल जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक अवसर हो, अनुभव और परंपरा से सीखने का। फिल्में और धारावाहिक समाज को दिशा देने में सक्षम हैं। लेकिन जब वह बुजुर्गों को कमजोर, रूढ़िवादी या हास्यास्पद दिखाता हैं, तो समाज में उनके प्रति सम्मान घटता है। इसलिए सकारात्मक फिल्मे होना जरूरी है। अगर बचपन से ही बच्चों को बुजुर्गों के प्रति सम्मान सिखाया जाए, उनके साथ समय बिताया जाए, उनकी बातें सुना जाए, उनके अनुभवों से सीखा जाए, तो आने वाले समय में तस्वीर बेहतर हो सकता है।

देश की आजादी की लड़ाई में लाखों बुजुर्गों ने हिस्सा लिया था। क्या हम उन हाथों को भूल सकते हैं जिन्होंने बेड़ियां तोड़ीं? दादा-दादी, नाना-नानी ने अपने परिवारों को सिर्फ आर्थिक रूप से नहीं, भावनात्मक रूप से भी मजबूत किया। आज भी वे बच्चों की पहली पाठशाला हैं। बुजुर्गों के पास जीवन का वो ज्ञान होता है जो किसी किताब में नहीं। उनके अनुभव समाज को दिशा दे सकता हैं, यदि हम उन्हें सुनना सीख लें।

परिवार में बच्चों और बुजुर्गों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करना चाहिए। इससे संवेदना बढ़ेगी और दूरी घटेगी। 1अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस मनाया जाता है। इस दिन को केवल औपचारिकता न बनाया जाए, बल्कि समाज में जागरूकता लाने का जरिया बनाया जाए। बुजुर्गों को भी यह महसूस होना चाहिए कि उनका जीवन अभी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि अब वह नई भूमिका निभा सकता हैं,  सलाहकार, लेखक, शिक्षक, या स्वयंसेवक के रूप में।

बुजुर्गों की मुस्कान में उस वृक्ष की छांव होता है, जो खुद धूप में खड़ा रहकर आने वाली पीढ़ियों को राहत देता है। जब वह मुस्कुराता हैं, तो यह संकेत है कि समाज में अभी भी करुणा, संवेदना और संस्कृति जीवित है। उनकी मुस्कान हमारी सभ्यता का सबसे सुंदर आईना होता है।



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