कांग्रेस की उलझन - ‘नरेन्द्र सरेंडर’ या राष्ट्रीय दायित्व?

Jitendra Kumar Sinha
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देश की राजनीति इन दिनों बेहद असहज स्थिति में हो गया है। पहलगाम आतंकी हमले के बाद देश की सुरक्षा नीति, वैश्विक रणनीति और विपक्ष की भूमिका पर एक गहन मंथन चल रहा है। जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने रणनीतिक दांव से पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कठघरे में खड़ा कर दिया है, वहीं विपक्ष खासकर कांग्रेस पार्टी असमंजस में घिरती जा रही है। इस समूचे घटनाक्रम में ‘नरेन्द्र सरेंडर’ का नारा भी अब कांग्रेस के लिए बोझ बनता दिखाई दे रहा है। प्रश्न यह उठता है कि जब आपके ही नेता पाकिस्तान को बेनकाब करने के लिए वैश्विक मंच पर सरकार के पक्ष में खड़ा दिख रहे हैं, तो फिर संसद में आक्रामक सवालों की जगह क्या रह जाता है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ऑपरेशन सिंदूर के बाद जो सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल विदेशों में भेजा, उसका प्रमुख उद्देश्य यह था कि दुनिया भारत के दृष्टिकोण को ठीक से समझे और पाकिस्तान की भूमिका को स्पष्ट रूप से देखे। इस प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, सलमान खुर्शीद जैसे चेहरे शामिल थे। इन नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, यूरोप और एशियाई देशों में जाकर भारत का पक्ष मजबूती से रखा है। उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तान की आतंकवाद प्रायोजित नीति का पर्दाफाश किया है, बल्कि भारत की सैन्य कार्रवाई के नैतिक और रणनीतिक पक्ष को भी स्पष्ट किया है। ऐसे में जब वे सभी नेता देश लौटे हैं, तो वह न तो सरकार की आलोचना करने की स्थिति में हैं और न ही राहुल गांधी के तीखे बयानों का प्रत्यक्ष समर्थन करने की।

कांग्रेस के लिए यह स्थिति बेहद असहज है। पार्टी की आधिकारिक लाइन ‘नरेन्द्र सरेंडर’ जैसी आक्रामक रणनीति की मांग कर रही है, लेकिन उसके अपने ही नेता जो वैश्विक मंच से लौटे हैं, वे सार्वजनिक रूप से ऐसी भाषा के समर्थन में नहीं दिख रहे हैं। शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेता स्पष्ट रूप से सरकार के विरोध में मुखर नहीं हो रहे हैं। मनीष तिवारी का यह बयान कि “हमारे लिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद कोई अकादमिक विषय नहीं है बल्कि अस्तित्व की चुनौती है,” यह बताता है कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों पर सरकार के साथ खड़ा हैं।

मनीष तिवारी ने यह भी स्पष्ट किया है कि वह राहुल गांधी द्वारा पीएम नरेन्द्र मोदी पर लगाए गए आरोपों की बहस में फिलहाल नहीं पड़ना चाहते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि वे खुद उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को मजबूती दी है। ऐसे में वे संसद में उस छवि को खंडित करने की स्थिति में नहीं हैं। यह राजनीतिक नैतिकता का प्रश्न भी है और रणनीतिक विवेक का भी।

कांग्रेस नेतृत्व अब इस उलझन में है कि मानसून सत्र के दौरान किस लाइन पर चला जाए। क्या प्रतिनिधिमंडल में शामिल नेताओं को पीछे कर दिया जाए और कुछ नए चेहरे आगे लाकर सरकार से तीखे सवाल पूछे जाएं? या फिर एकरूपता के साथ संसद में सरकार पर सामूहिक हमला किया जाए, भले ही उसके अपने नेता असहमत हों? कांग्रेस के रणनीतिकारों के लिए यह किसी जाल से कम नहीं है।

दूसरी ओर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस समूचे घटनाक्रम को राजनीतिक चतुराई से एक रणनीतिक हथियार में बदल दिया है। उन्होंने न सिर्फ विपक्ष को इस मिशन में साथ लिया है, बल्कि उनके नेताओं को वैश्विक मंच पर ले जाकर उन्हें अपनी सरकार की विदेश नीति और सुरक्षा नीति के वाहक बना दिया है, और जब वही नेता देश लौटे हैं, तो उन्हें सवाल पूछने की नैतिक स्थिति से वंचित कर दिया गया है। इसे राजनीतिक 'चेकमेट' कहा जा सकता है।

अब जब संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, तो विपक्ष के सामने असली चुनौती यह नहीं है कि सरकार से सवाल कैसे पूछे जाएं, बल्कि यह है कि अपने ही सांसदों को किस तरह एकजुट रखा जाए। सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के लौटने के बाद कांग्रेस के भीतर जो मतभेद उभरा हैं, वह किसी भी समय सार्वजनिक असहमति का रूप ले सकता हैं। राहुल गांधी, जो हाल ही में पीएम मोदी को ‘नरेन्द्र सरेंडर’ कहकर कटघरे में खड़ा कर रहे थे, अब खुद अपने सांसदों से समर्थन नहीं ले पा रहे हैं।

यह भी देखा जा रहा है कि विपक्षी एकता का सपना इस मुद्दे पर ध्वस्त होता नजर आ रहा है। अन्य विपक्षी दलों जैसे तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता भी इस मुद्दे पर कांग्रेस के साथ कदमताल नहीं कर रहे हैं। वे न तो कांग्रेस के ‘सरेंडर’ जैसे आरोपों में भागीदार हैं और न ही सरकार की रणनीति की खुलकर आलोचना कर रहे हैं। यह कांग्रेस को संसद में अलग-थलग कर देने वाला है।

इस परिदृश्य में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या संसद में पहलगाम आतंकी हमले, ऑपरेशन सिंदूर, और पाकिस्तान की रणनीति पर कोई सार्थक बहस हो पाएगी? क्या यह बहस केवल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रह जाएगी, या फिर इससे कोई ठोस नीति निकलेगी? सरकार की ओर से संकेत मिल रहा है कि वह बहस के लिए तैयार है, लेकिन वह चाहती है कि बहस का स्तर राष्ट्रीय सुरक्षा की गंभीरता के अनुरूप हो।

अब देखा जाए तो कांग्रेस प्रश्न उठा रही है और उसका जवाब चाहती है कि पहलगाम आतंकी कहां से आए और वे भाग कैसे गए?, सीजफायर की भूमिका और उसके कारण सुरक्षा में चूक कहां हुई?, ऑपरेशन सिंदूर के बाद क्या हमारी सैन्य रणनीति बदलेगी?, पाकिस्तान और चीन के गठजोड़ पर भारत की भावी रणनीति क्या होगी?, सिंगापुर में CDS द्वारा किए गए खुलासों पर सरकार की स्थिति क्या है? और क्या कारगिल की तर्ज पर विशेषज्ञ समिति गठित की जाएगी?

यह प्रश्न बेशक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जब उन्हें उठाने वाले नेता खुद ही इस पूरे परिदृश्य में सरकार के रणनीतिक साझेदार रहे हों, तो उनकी विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ जाती है। यही कारण है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अब रणनीतिक भ्रम में दिख रहा है।

ऐसी स्थिति में कांग्रेस के लिए विकल्प सीमित हैं। या तो वह मानसून सत्र में अपनी आधिकारिक लाइन से पीछे हटे और प्रतिनिधिमंडल में शामिल नेताओं को आगे कर संयमित बहस करे, या फिर पूरी ताकत से सरकार को घेरने की कोशिश करे, भले ही उससे आंतरिक मतभेद बढ़ जाएं। दोनों ही स्थिति में कांग्रेस को राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।

राजनीति में एक कहावत चरितार्थ है,  राजनीतिक लाभ हमेशा स्पष्ट और सुसंगत लाइन से मिलता है, भ्रम और विरोधाभास से नहीं। कांग्रेस इस समय इसी विरोधाभास का शिकार हुआ दिख रहा है। उसका नेतृत्व आक्रामक है, लेकिन उसके अनुभवी नेता संयम की सलाह दे रहे हैं। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रणनीति यह सुनिश्चित करने की रही है कि भारत की विदेश नीति पर कोई विभाजन न दिखे। उन्होंने विपक्ष को साथ लेकर दुनिया के सामने भारत की एकता का प्रदर्शन किया है, और अब विपक्षी खेमे में उसी एकता का संकट उत्पन्न हो गया है। यह एक मास्टरस्ट्रोक था, जिसने न केवल पाकिस्तान को दुनिया के सामने बेनकाब किया, बल्कि विपक्ष को देश में आत्ममंथन की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।

अंततः, भारतीय राजनीति एक ऐसे मोड़ पर आ गया है जहां राष्ट्रीय सुरक्षा, कूटनीति और राजनीति के त्रिकोण में नया संतुलन बन रहा है। कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी के लिए यह परीक्षा की घड़ी है। उसे यह तय करना होगा कि वह राजनीति को प्राथमिकता देगा या राष्ट्रहित को। यह निर्णय न केवल इस मानसून सत्र की दिशा तय करेगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को भी परिभाषित करेगा।



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