इज़रायल और ईरान के बीच का तनाव एक बार फिर भड़क उठा है, लेकिन इस बार चर्चा का केंद्र कोई सीधा सैन्य टकराव नहीं, बल्कि ईरान का वह अंडरग्राउंड न्यूक्लियर ठिकाना है जिसे नेतन्याहू की सरकार बार-बार निशाना बनाने की बात करती रही है – फोर्डो। यह ठिकाना ईरान के पहाड़ों की गहराई में बना हुआ है और इसे पारंपरिक बंकर-बस्टिंग बमों से भी नष्ट करना लगभग असंभव माना जाता है।
नेतन्याहू वर्षों से दावा करते आ रहे हैं कि इज़रायल अकेले दम पर भी ईरान के न्यूक्लियर इंफ्रास्ट्रक्चर को तबाह कर सकता है, लेकिन हालिया रिपोर्ट्स और विशेषज्ञों की राय से यह साफ़ होता जा रहा है कि यह दावा ज़मीनी हकीकत से मेल नहीं खाता। इज़रायल के पास एडवांस्ड तकनीक और फाइटर जेट्स की भरमार है, लेकिन GBU-57 जैसे सुपर बंकर-बस्टर बम उसके पास नहीं हैं – ये बम सिर्फ अमेरिका के पास हैं और इनका उपयोग करने की राजनीतिक अनुमति अभी तक नहीं मिली है।
फोर्डो की सुरक्षा इतनी पुख्ता है कि वहां तक किसी भी हमले की पहुंच बेहद सीमित हो जाती है। पहाड़ों के भीतर स्थित इस यूरेनियम संवर्धन केंद्र को केवल उन्हीं हथियारों से निशाना बनाया जा सकता है जो सैकड़ों फीट भीतर तक विस्फोट कर सकें – और यही वो कमजोरी है जो नेतन्याहू की रणनीति को अधूरा बनाती है।
नेतन्याहू के साथ-साथ ट्रंप प्रशासन का रवैया भी इस मामले में अहम है। ट्रंप ने हाल ही में कहा कि अमेरिका की भूमिका 'अंतिम उपाय' के तौर पर ही होगी और अगर इज़रायल को खुद आगे बढ़कर कुछ करना है तो उन्हें दो हफ्तों के भीतर करना होगा। ऐसे में नेतन्याहू पर दबाव और बढ़ गया है – उन्हें खुद को निर्णायक नेता साबित करना है, लेकिन साधन सीमित हैं।
IAEA के प्रमुख राफाएल ग्रॉसी ने यह तो माना है कि ईरान के पास हथियार बनाने लायक यूरेनियम है, लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ईरान ने अभी तक इसे हथियारों में बदलने की कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की है। यह बयान अंतरराष्ट्रीय राजनीति को और जटिल बना देता है क्योंकि इससे सैन्य कार्रवाई का नैतिक और कूटनीतिक आधार कमजोर होता है।
फिलहाल जो तस्वीर उभर रही है वह यह है कि इज़रायल की कोशिशें ईरान के न्यूक्लियर कार्यक्रम को खत्म करने की नहीं, बल्कि उसे देरी में डालने की हैं। यह एक ऐसा संघर्ष बन चुका है जिसमें तकनीकी सीमाएं, कूटनीतिक दबाव और राजनीतिक जिद – तीनों ही एक-दूसरे से टकरा रहे हैं।
फोर्डो अब सिर्फ एक ठिकाना नहीं, नेतन्याहू की क्षमता और सीमाओं की प्रतीक बन गया है। अगर उन्हें इस संघर्ष को निर्णायक बनाना है, तो सिर्फ बयानबाज़ी नहीं, बल्कि सहयोग, रणनीति और तकनीक का वास्तविक समन्वय करना होगा – वरना ये लड़ाई लंबे समय तक अधूरी ही बनी रहेगी।
