पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा 2025 आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि यानी 7 जुलाई को धूमधाम से शुरू हुई। यह उत्सव न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में श्रद्धा, भक्ति और सांस्कृतिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण माना जाता है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को विशेष रूप से बनाए गए विशाल रथों में विराजमान कर गुंडिचा मंदिर ले जाया जाता है। इन रथों को लाखों श्रद्धालु रस्सियों से खींचते हैं और यह माना जाता है कि रथ खींचने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। रथों का निर्माण हर साल नए सिरे से किया जाता है, लेकिन उनकी संरचना, आकार और रंग पारंपरिक रूप से तय होते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ ‘नंदीघोष’, बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ और सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलन’ कहलाता है। इनकी ऊँचाई लगभग 45 फीट तक होती है और इन्हें लोहे की कील की जगह लकड़ी के हिस्सों से जोड़कर बनाया जाता है।
इस महापर्व की शुरुआत ‘स्नान यात्रा’ से होती है जिसमें भगवान को 108 कलशों से स्नान कराया जाता है। इसके बाद भगवान कुछ दिनों के लिए बीमार पड़ते हैं, जिसे 'अनवासर' कहा जाता है। फिर ‘गुंडिचा मंदिर’ में यात्रा का आयोजन होता है, जहां भगवान सात दिनों तक निवास करते हैं। इसके बाद रथ यात्रा के ठीक नौवें दिन ‘बहुड़ा यात्रा’ होती है जिसमें तीनों देवता वापस श्रीमंदिर लौटते हैं। यात्रा की एक विशेष रस्म ‘चेरा पहारा’ होती है, जिसमें पुरी के गजपति राजा स्वर्ण झाड़ू से रथ और मार्ग की सफाई करते हैं। यह विनम्रता और समर्पण का प्रतीक माना जाता है।
रथ यात्रा के दौरान यह भी देखा गया है कि अक्सर बारिश होती है, मानो प्रकृति स्वयं इस आयोजन का हिस्सा बन जाती है। रथ यात्रा का इतना अधिक महत्व है कि इसके आयोजन की झलक अब अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे कई देशों में भी देखने को मिलती है, जहाँ भारतीय समुदाय अपनी आस्था को जीवंत बनाए रखने के लिए इस पर्व का आयोजन करता है।
पुरी की रथ यात्रा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक ऐसा पर्व है जो भारत की सांस्कृतिक विविधता, भक्ति परंपरा और सामाजिक समरसता को जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें कोई भेदभाव नहीं होता – हर जाति, धर्म, वर्ग और देश के लोग इसमें भाग ले सकते हैं। यह समर्पण, श्रद्धा और सेवा का ऐसा संगम है जो लाखों लोगों के जीवन में अध्यात्म की ऊर्जा का संचार करता है।

