गुरु-शक्ति और स्वर्णाकर्षण भैरव की दिव्यता का संगम है - गुरु पूर्णिमा

Jitendra Kumar Sinha
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गुरु पूर्णिमा भारतवर्ष की आत्मा से जुड़ा एक ऐसा पर्व है, जिसकी गूंज केवल मंदिरों और आश्रमों तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि हर साधक, हर शिष्य और हर आत्मा के भीतर गुंजायमान होता है। यह केवल एक तिथि नहीं, एक अनुभूति है- जब ज्ञान का सूर्य गुरु रूप में उदय होता है और अज्ञानता का तिमिर नष्ट हो जाता है। 

गुरु पूर्णिमा को "व्यास पूर्णिमा" भी कहा जाता है, क्योंकि यह महर्षि वेदव्यास के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने चारों वेदों,  ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद का विभाजन कर उन्हें संरचित किया था। महाभारत, ब्रह्मसूत्र, 18 पुराण और भगवद गीता जैसे ग्रंथ उनकी ही देन है। महर्षि वेदव्यास न केवल एक ऋषि थे, बल्कि वे भारतीय संस्कृति के शिल्पकार भी थे।

गुरु पूर्णिमा केवल महर्षि वेदव्यास की स्मृति नहीं है, बल्कि ज्ञान परंपरा की नींव रखने वालों की श्रद्धा का प्रतीक भी है। इस दिन हमलोग केवल उन्हें नहीं, बल्कि सभी गुरुओं को नमन करते हैं जिन्होंने हमें आत्मा से परमात्मा की ओर ले जाने वाला मार्ग दिखाया है।

गुरू का वास्तविक अर्थ होता है- 'गु' का अर्थ है अंधकार, और 'रु' का अर्थ है प्रकाश। इस प्रकार गुरु वह होता है जो अज्ञान के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश देता है। इसलिए कहा जाता है कि - 

"गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः, गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।"

गुरु का स्थान केवल शैक्षणिक व्यवस्था में नहीं है, बल्कि चेतना के हर स्तर पर होता है। भारतीय परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है।

गुरु और शिष्य का संबंध केवल शरीर या विचारों तक सीमित नहीं होता है। यह आत्मा का आत्मा से जुड़ाव होता है। एक सच्चा गुरु, शिष्य को, उसके सत्य स्वरूप से मिलवाता है। शिष्य का भी धर्म है कि वह गुरु के प्रति, तन-मन-धन से समर्पित हो। गुरु से प्रश्न करें, जिज्ञासा करें और विनम्रता से उत्तर प्राप्त करे। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

"तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥"

गुरु केवल ज्ञान नहीं देता है, वह शिष्य का संपूर्ण रूपांतरण करता है। वह जीवन की गुत्थियों को सुलझाता है, मोह-माया के जाल से बाहर निकालता है और आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। "गुरु वही है जो शिष्य को उसके स्वरूप से मिला दे।" ऐसा गुरु जीवन के मार्गदर्शक के साथ-साथ आत्मा के पथप्रदर्शक भी होते हैं।

स्वर्णाकर्षण भैरव तत्व का और गुरु पूर्णिमा का दिव्य संगम भी है “गुरु पूर्णिमा”। भैरव का अर्थ है- 'भय को हरने वाला'। वे शिव के रौद्र रूप हैं और साधक को जीवन की असुरक्षा, भय, दुर्घटना, शत्रुता, तंत्र-मंत्र बाधा, ग्रहदोष आदि से मुक्त करते हैं। स्वर्णाकर्षण भैरव पीले वर्ण के होते हैं, धन कलश धारण किए रहते हैं, भैरवी गोद में स्थित रहती है,  गुरु ग्रह के प्रतीक हैं और तांत्रिक, मंत्रिक और भौतिक बलों के रक्षक भी हैं। गुरु पूर्णिमा पर इनकी उपासना से न केवल आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होता है, बल्कि आर्थिक समृद्धि, ग्रह शांति और भयमुक्ति भी मिलता है।

यह दिन केवल पूजन का नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण का भी है। हमलोगों को यह देखना होता है कि हमलोग अपने जीवन में गुरु के मार्गदर्शन का कितना पालन कर रहे हैं। गुरु पूर्णिमा वह द्वार होता है जिससे आत्मिक यात्रा आरंभ होता है। यह दिवस शिष्य को प्रेरित करता है कि वह सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर हो।

गुरुजी के प्रवचनों में एक बात विशेष रहती है कि प्रणाम केवल औपचारिकता नहीं, आत्मा का समर्पण होता है। पहले ईश्वर या गुरु के गुरु को प्रणाम किया जाता है, फिर गुरु को उसके बाद फिर माता-पिता और परिवारजन को किया जाता है। इसलिए गुरु का कहना होता है कि प्रणाम शिष्टाचार नहीं, साधना है- "जो झुकना जानता है, वही ऊँचाइयों को छू सकता है।"

शास्त्रों में रामचरित मानस में तुलसीदास जी ने कहा है कि "वंदे बोधमयं नित्यं गुरु शंकर रूपिणम्"। कबीरदास ने कहा है कि "गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥"। उपनिषदों में कहा गया है कि "आचार्यवान् पुरुषो वेद"- जो गुरु से दीक्षित है, वही सत्य को जान सकता है। यह है गुरु की महत्ता। लेकिन आधुनिक युग में जीवन की गति इतनी तेज हो गई है कि व्यक्ति दिशाहीन हो गया है। गुरु एक नैतिक मार्गदर्शक बनते जा रहे हैं। चाहे वह शिक्षा हो, अध्यात्म, योग, कला, तकनीक या जीवन मूल्य- हर क्षेत्र में गुरु अनिवार्य है।

गुरु पूर्णिमा की रात मानसिक स्थिरता के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। चंद्रमा का प्रभाव मानस पर अधिक होता है, जिससे ध्यान और साधना में गहराई आता है। अध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण करने के लिए यह सर्वोत्तम दिन होता है।

गुरु परंपरा के प्रेरक में भगवान श्रीराम के गुरु वशिष्ठ ऋषि थे, श्रीकृष्ण के गुरु सांदीपनि मुनि थे, शिव के गुरु दक्षिणामूर्ति थे, हनुमान के गुरु सूर्यदेव थे, संत एकनाथ के गुरु गुरु जनार्दन स्वामी और संत ज्ञानेश्वर के गुरु उनके अपने भाई निवृत्तिनाथ थे।


मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा का उत्सव प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर गुरु या उनके चित्र के समक्ष दीप जलाकर पुष्प अर्पित कर गुरु मंत्र या ध्यान कराना चाहिए । स्वर्णाकर्षण भैरव का पूजन कर तांत्रिक सुरक्षा प्राप्त करना चाहिए। गुरु ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए और संकल्प लेना चाहिए कि गुरु के दिखाए मार्ग पर ही चलेंगे।


गुरु पूर्णिमा पर गुरु तत्व और स्वर्णाकर्षण भैरव की साधना एक विशेष योग बनाता है। एक ओर जहां गुरु ज्ञान और प्रकाश का स्त्रोत हैं, वहीं भैरव शक्ति और सुरक्षा का स्रोत हैं। इस दिन यदि श्रद्धा और विधिपूर्वक साधना किया जाए तो आध्यात्मिक उन्नति, मानसिक शांति, भय से मुक्ति, आर्थिक समृद्धि, कर्मों की शुद्धि, मार्गदर्शन और कृपा मिलता है।


गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, एक अवसर होता है, स्वयं को फिर से समझने का, अपने अंदर के शिष्य को जागृत करने का, अपने मार्गदर्शक के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का, और उस भैरवी शक्ति को आमंत्रित करने का जो हमारे जीवन की रक्षा करता है। गुरु के चरणों में श्रद्धा रखने, अपने अहंकार को त्यागने, प्रश्न करने, सेवा करने और आत्मज्ञान की ओर बढ़ाने का, यही है गुरु पूर्णिमा का सच्चा संदेश। यही है सनातन का अमृत स्वरूप।





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