हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के सुदूर गिरिपार क्षेत्र में, जहाँ प्रकृति की गोद में सदियों पुरानी परंपराएं आज भी साँस लेती हैं, वहाँ एक ऐसी विवाह पद्धति प्रचलित है जो आधुनिक समाज के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है। यह है “बहुपति विवाह की परंपरा”, एक ऐसी प्रथा जिसमें एक स्त्री एक ही परिवार के दो या दो से अधिक भाइयों की पत्नी बनती है। हाल ही में शिलाई गाँव की सुनीता चौहान का दो सगे भाइयों, प्रदीप और कपिल नेगी से हुआ विवाह एक बार फिर इस अनूठी परंपरा को चर्चा के केंद्र में ले आया है। यह विवाह न केवल दो व्यक्तियों का मिलन है, बल्कि उस गहरी सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रतिबिंब भी है, जिसने इस क्षेत्र के हट्टी समुदाय को सदियों से एक सूत्र में पिरोए रखा है। आखिर क्या है यह परंपरा? क्यों आज के दौर में भी शिक्षित युवा इसे अपना रहे हैं? और कैसे यह प्रथा 'न बंटे खेत, न टूटे परिवार' के सिद्धांत को चरितार्थ करती है?
हिमालय की गोद में बसा हिमाचल प्रदेश का सिरमौर जिला अपनी नैसर्गिक सुंदरता के साथ-साथ अपनी विशिष्ट जनजातीय संस्कृति के लिए भी जाना जाता है। इसी जिला का गिरिपार क्षेत्र हट्टी समुदाय का मूल निवास स्थान है। 'हट्टी' नाम की उत्पत्ति 'हाट' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है बाजार। यह समुदाय पारंपरिक रूप से अपनी उपज, सब्जियां, ऊन और मांस आदि को पास के बाजारों में बेचने के लिए जाना जाता रहा है, और यही उनकी पहचान बन गया। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा हट्टी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा दिया जाना उनके लंबे संघर्ष की जीत और उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को मिली एक महत्वपूर्ण मान्यता है।
यह समुदाय अपनी एक अलग सामाजिक संरचना और परंपराओं के लिए जाना जाता है, जिसमें उनकी विवाह पद्धतियां सबसे प्रमुख हैं। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में संयुक्त परिवार को बहुत महत्व दिया जाता है और इसी संयुक्त परिवार की धुरी को बनाए रखने में बहुपति और बहुपत्नी जैसी प्रथाओं ने ऐतिहासिक रूप से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हट्टी समुदाय में “बहुपति विवाह” को स्थानीय भाषा में 'जाज्दा' कहा जाता है। यह एक पारंपरिक विवाह समारोह है, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह है कि इसमें वर पक्ष, वधू के घर बारात लेकर नहीं जाता है, बल्कि दुल्हन स्वयं अपने सगे-संबंधियों के साथ बारात लेकर दूल्हे के घर पहुँचती है। यह परंपरा स्त्री के महत्व और परिवार में उसके केंद्रीय स्थान को भी दर्शाता है।
जब दुल्हन की बारात दूल्हे के घर पहुँचती है, तो वहाँ विवाह की सभी रस्में निभाई जाती हैं। इस पूरी प्रक्रिया को 'सींज' कहा जाता है। 'सींज' के दौरान स्थानीय पुजारी या कोई सम्मानित बुजुर्ग स्थानीय बोली में मंत्रोच्चार करते हैं और पवित्र जल छिड़ककर विवाह को संपन्न कराते हैं। इसके बाद गुड़ और अन्य मिठाइयां बांटकर इस नए रिश्ते की मधुर शुरुआत की कामना किया जाता है। परिवार के कुल देवता का आशीर्वाद लेना इस समारोह का एक अभिन्न अंग है, जो इस रिश्ते को धार्मिक और सामाजिक दोनों तरह की वैधता प्रदान करता है।
सुनीता चौहान का विवाह भी इसी 'जाज्दा' और 'सींज' पद्धति से प्रदीप और कपिल नेगी से हुआ। इस विवाह की विशेष बात यह है कि इसमें शामिल सभी पक्ष शिक्षित और आधुनिक दुनिया से जुड़े हुए हैं। प्रदीप जलशक्ति विभाग में कार्यरत हैं, तो कपिल विदेश में नौकरी करते हैं। सुनीता ने स्वयं इस परंपरा को अपनाने के पीछे अपनी और परिवार की सहमति और समझ को प्रमुख कारण बताया। उनका यह कदम दर्शाता है कि हट्टी समुदाय के शिक्षित युवा भी अपनी जड़ों और परंपराओं को लेकर कितने सजग और गौरवान्वित हैं।
इस अनूठी परंपरा के पीछे गहरे सामाजिक और आर्थिक कारण छिपे हैं, जो इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र की जीवन शैली से उपजे हैं। गिरिपार जैसे पहाड़ी इलाकों में कृषि योग्य भूमि बहुत सीमित होती है। यहाँ के खेत छोटे-छोटे और सीढ़ीनुमा होते हैं, जिन पर खेती करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। परिवार अमूमन बड़े होते हैं और यदि परिवार के हर भाई का विवाह अलग-अलग होता, तो पैतृक कृषि भूमि का बंटवारा होता जाता है।
इस निरंतर बंटवारे से खेत इतने छोटे हो जाते कि उन पर खेती करना और परिवार का भरण-पोषण करना लगभग असंभव हो जाता है। इसी आर्थिक विवशता और सामाजिक सूझबूझ ने बहुपति प्रथा को जन्म दिया। एक ही स्त्री के सभी भाइयों से विवाह होने की स्थिति में परिवार की संपत्ति, विशेषकर कृषि भूमि का बंटवारा नहीं होता है। पूरा परिवार एक इकाई के रूप में रहता है, जिससे श्रम शक्ति भी संगठित रहता है और खेती-बाड़ी एव अन्य आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाना आसान हो जाता है।
इस प्रकार, 'न बंटे खेत, न टूटे परिवार' का सिद्धांत इस परंपरा का मूल आधार बना। यह प्रथा न केवल भूमि के विखंडन को रोकती है, बल्कि भाइयों के बीच एकता और संयुक्त परिवार की भावना को भी मजबूत करती है, जो पहाड़ी जीवन की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए अत्यंत आवश्यक है।
इस क्षेत्र की लोककथाएं और मान्यताएं बहुपति प्रथा को महाभारत काल से जोड़ती हैं। स्थानीय लोग स्वयं को पांडवों का वंशज मानते हैं और द्रौपदी के पांच पांडवों से हुए विवाह को इस परंपरा का स्रोत बताते हैं। उत्तराखंड के निकटवर्ती जौनसार-बावर क्षेत्र और हिमाचल के किन्नौर में भी यह प्रथा प्रचलित है और वहाँ भी इसे पांडवों की विरासत के रूप में ही देखा जाता है।
इस मान्यता के अनुसार, जब पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान इन हिमालयी क्षेत्रों में आए थे, तो उन्होंने यहाँ की स्थानीय संस्कृति पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। द्रौपदी का पाँच पतियों के साथ रहना और उस परिवार का एकजुट होकर हर संकट का सामना करना, यहाँ के लोगों के लिए एक आदर्श बन गया। इस पौराणिक संबंध ने बहुपति प्रथा को एक सामाजिक मजबूरी से ऊपर उठाकर एक धार्मिक और सांस्कृतिक गौरव का विषय बना दिया है। यही कारण है कि इस प्रथा को 'द्रौपदी प्रथा' के नाम से भी जाना जाता है।
यह जानना भी रोचक है कि गिरिपार क्षेत्र में न केवल बहुपति, बल्कि बहुपत्नी प्रथा का भी चलन रहा है। कई मामलों में, एक पुरुष ने अपनी पत्नी की सगी बहनों से भी विवाह किया है। इसका मुख्य उद्देश्य भी परिवार को एकजुट रखना और संपत्ति के बंटवारे को रोकना होता था। खास बात यह है कि दूसरी या तीसरी शादी के बाद भी पहली पत्नी को छोड़ा नहीं जाता, बल्कि सभी पत्नियाँ एक साथ एक ही घर में रहती हैं।
यह दर्शाता है कि इस समुदाय में विवाह का प्राथमिक उद्देश्य केवल व्यक्तिगत सुख या वंश वृद्धि ही नहीं, बल्कि परिवार और समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिरता को बनाए रखना भी रहा है। इन प्रथाओं के केंद्र में व्यक्ति से अधिक परिवार और समुदाय का हित सर्वोपरि माना गया है।
आज के बदलते सामाजिक परिवेश, बढ़ती शिक्षा, बाहरी दुनिया से संपर्क और आर्थिक विकास के साथ हट्टी समुदाय की इन पारंपरिक प्रथाओं पर भी आधुनिकता का प्रभाव पड़ रहा है। नई पीढ़ी के बहुत से युवा अब एकल विवाह को प्राथमिकता दे रहे हैं। कानूनी प्रावधान और सामाजिक सुधार आंदोलन भी इन प्रथाओं को हतोत्साहित करते रहे हैं।
जैसा कि सुनीता चौहान और नेगी बंधुओं के विवाह से स्पष्ट होता है, यह परंपरा अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। समुदाय के भीतर एक वर्ग ऐसा भी है जो अपनी इस अनूठी विरासत को सहेजना चाहता है। उनका मानना है कि यह केवल एक विवाह पद्धति नहीं है, बल्कि उनकी पहचान, उनके इतिहास और उनके पूर्वजों की बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। केंद्रीय हट्टी समिति जैसे संगठन भी इस बात पर जोर देता हैं कि यह परंपरा आपसी समझ और भाईचारे को बढ़ावा देती है।
आज जब शहरी समाज में परिवार टूट रहा है और जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के लिए विवाद आम बात हो गया हैं, तब हट्टी समुदाय की यह परंपरा एक वैकल्पिक सामाजिक संरचना पर सोचने को विवश करता है। यह सिखाता है कि कैसे सीमित संसाधनों के साथ भी एकजुट रहकर एक मजबूत और सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सकता है।
समय के साथ इन परंपराओं के स्वरूप में बदलाव आ सकता है, लेकिन इनके मूल में छिपा परिवार और समुदाय को सर्वोपरि रखने का संदेश आज भी प्रासंगिक है। हट्टी समुदाय की बहुपति परंपरा केवल एक जनजातीय रिवाज नहीं है, बल्कि हिमालय की कठोर परिस्थितियों में जीवन जीने की कला का एक जीवंत अध्याय है, जो बताता है कि कैसे 'न बंटे खेत, न टूटे परिवार' के एक सरल सिद्धांत ने एक पूरे समुदाय को सदियों तक जोड़ रखा है। यह परंपरा हिमाचल के सांस्कृतिक खजाने का एक अनमोल रत्न है, जिसे समझने और सम्मान करने की आवश्यकता है।
