मानव कल्पना और विज्ञान की दुनिया में जब-जब कोई नई खोज होती है, वह भविष्य की संभावनाओं को नए मायनों में परिभाषित करता है। ऐसा ही एक चौंकाने वाला आविष्कार हाल ही में चीन के बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों ने किया है। दुनिया का सबसे हल्का माइंड कंट्रोल डिवाइस, जिसे मधुमक्खी जैसे छोटे कीट पर सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया है।
यह डिवाइस मात्र 74 मिलीग्राम वजन का है, यानि लगभग एक बूंद पानी के बराबर। इसे मधुमक्खी के शरीर में इस तरह से फिट किया गया है कि वह मनचाहे दिशा में उड़ान भर सके, रुक सके, मुड़ सके और वह भी पूरी तरह वैज्ञानिक निर्देशों पर।
इस माइंड कंट्रोल डिवाइस को मधुमक्खी के शरीर पर विशेष स्थान पर लगाया जाता है, खासकर उसके पंखों और मस्तिष्क के आसपास। इसका वजन केवल 74 मिलीग्राम है, अत्यंत हल्की और लचीली माइक्रोचिप, इन्फ्रारेड रिसीवर, वाइब्रेशन जनरेटर और मस्तिष्क में तीन सूक्ष्म सुइयों से जुड़ाव है। इसमें तीन सुइयों की मदद से मधुमक्खी के मस्तिष्क के उन हिस्सों में इलेक्ट्रॉनिक संकेत भेजे जाते हैं, जो उसकी उड़ान और दिशा नियंत्रण से जुड़े होते हैं।
यह डिवाइस कोई चमत्कारी यंत्र नहीं है, बल्कि न्यूरो-साइंस और इलेक्ट्रॉनिक्स का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक वाइब्रेशन का उपयोग करके मधुमक्खी के मस्तिष्क को यह 'भ्रम' दिया जाता है कि उसे दाएं मुड़ना है, रुकना है या आगे बढ़ना है। इसका कामकाज किसी रीमोट कंट्रोल ड्रोन जैसा है, लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि यह मशीन नहीं है, एक जीव है, जिसे आंशिक रूप से साइबॉर्ग में बदल दिया गया है।
यह दुश्मन के ठिकानों की जासूसी, माइक्रो-कैमरा से तस्वीरें भेजना, जैविक वॉरफेयर के खतरों को सूंघना, बम और विस्फोटकों का पता लगाना, बंद परिसरों में प्रवेश कर गतिविधियों पर नजर रखना, भूकंप या आग जैसी आपदा के बाद मलबे में फंसे लोगों का पता लगाना, खतरनाक गैस या रेडिएशन की जांच करना, कीटों की गतिविधियों पर नजर, प्रदूषण का अध्ययन और फसलों की स्थिति का रियल टाइम विश्लेषण का काम करता है।
इससे पहले सिंगापुर ने एक माइक्रो-साइबॉर्ग डिवाइस बनाया था, जो बीटल्स और कॉकरोच पर काम करता था। लेकिन उसका वजन लगभग तीन गुना ज्यादा था और उसमें दो बड़ी कमियाँ थी, बीटल्स उड़ते हुए जल्दी थक जाता था और कॉकरोच को नियंत्रित करना ज्यादा सटीक नहीं था।
चीन का यह नया डिवाइस हल्का, टिकाऊ और ज्यादा सटीक है। मधुमक्खी जैसे कीट की लगातार पांच किलोमीटर उड़ान की क्षमता इसे अनूठा बनाता है।
माइंड कंट्रोल तकनीक को लेकर वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के बीच हमेशा विवाद रहा है। इस प्रयोग में एक जीवित प्राणी के मस्तिष्क को बाहरी मशीन से नियंत्रित किया जा रहा है यह कई सवाल खड़े करता है, क्या यह प्राकृतिक जीवों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं है? क्या भविष्य में यह तकनीक बड़े जानवरों पर भी लागू किया जा सकता है? क्या इसका उपयोग मानव मस्तिष्क पर भी हो सकता है? इन सभी सवालों पर अभी विश्वभर के शोध संस्थानों में बहस चल रही है।
साइबॉर्ग यानि Cybernetic Organism, एक ऐसा जीव जो जैविक और कृत्रिम तत्वों के मेल से बना हो। 1960 में जैक ई. स्टील ने पहली बार 'साइबॉर्ग' शब्द का उपयोग किया गया था। यह अवधारणा मुख्यतः अंतरिक्ष यात्रियों के लिए विकसित की गई थी। अब यह रोबोटिक्स और न्यूरो-साइंस का अभिन्न अंग बन चुका है। मधुमक्खी के मस्तिष्क को नियंत्रित कर साइबॉर्ग बनाना इसी दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है।
भविष्य में इसी तकनीक में कैमरा और ऑडियो रिकॉर्डर भी जोड़े जा सकते हैं। तब यह एक उड़ता हुआ जासूस उपकरण बन जाएगा। एक मधुमक्खी किसी कमरे में प्रवेश आसानी से करती है। अंदर की सारी तस्वीरें और आवाजें रिकॉर्ड कर सकती है। लाइव डेटा भेजकर जासूसी को आसान बना सकती है। ऐसे में, आने वाला युग जैविक ड्रोन का हो सकता है, जो किसी भी सुरक्षा प्रणाली को चकमा दे सकता है।
अब कीटों के दिमाग को मशीन से नियंत्रित किया जा रहा है, तब प्रश्न उठता है कि क्या यही तकनीक भविष्य में मानव मस्तिष्क पर भी लागू हो सकता है? इंसानों का मस्तिष्क जटिल और बड़ा होता है, नैतिक और कानूनी बाधाएं बहुत ज्यादा हैं, लेकिन ब्रेन चिप्स (जैसे Elon Musk की Neuralink) से यह संभव हो सकता है। यह क्षेत्र अभी शोध के प्रारंभिक चरण में है, लेकिन खतरे और उम्मीदें दोनों मौजूद हैं।
जब हजारों-लाखों कीटों को साइबॉर्ग बनाया जाएगा, तो प्रकृति की संतुलन प्रणाली पर प्रभाव पड़ना तय है। यदि मधुमक्खियाँ सिर्फ जासूसी करें और परागण (pollination) न करें, तो फसलें और वनस्पति प्रभावित होगी। परागण में कमी, खाद्य श्रृंखला में व्यवधान, कीटों की प्रजातियों में गिरावट आएगी। इसलिए तकनीकी प्रयोगों को संतुलन के साथ किया जाना चाहिए।
भारत में भी DRDO और IISc जैसे संस्थानों द्वारा माइक्रो-रोबोटिक्स और न्यूरोइलेक्ट्रॉनिक्स पर काम चल रहा है, लेकिन अभी यह प्रयोगशाला स्तर तक सीमित है। अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी इस दिशा में अनुसंधान हो रहा है। भारत के लिए सीख है कि चीन जैसी तेजी से रिसर्च और विकास करे, रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने और नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन हो।
चीनी वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह अल्ट्रा-लाइट माइंड कंट्रोल डिवाइस न केवल तकनीकी कमाल है, बल्कि भविष्य की युद्धनीति, आपदा प्रबंधन और निगरानी तंत्र का आधार भी बन सकता है। लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि नैतिकता, पर्यावरण और जैव विविधता पर इसके प्रभावों पर गंभीर विचार हो। अगर यह संतुलित रूप से विकसित और उपयोग किया गया, तो यह 21वीं सदी की सबसे क्रांतिकारी खोजों में से एक हो सकता है।
