विज्ञान की दुनिया में ऐसे कई क्षण आता है जब शोध और तकनीक न केवल जटिल बीमारियों का समाधान करता हैं, बल्कि जीवन की परिभाषा को भी नए सिरे से गढ़ते हैं। ब्रिटेन में जन्मे आठ ऐसे बच्चे जिनके शरीर में तीन अलग-अलग लोगों का डीएनए है। इन्हें 'थ्री-पेरेंट बेबी' यानि 'तीन माता-पिता वाले बच्चे' कहा जा रहा है। यह तकनीकी चमत्कार सिर्फ मेडिकल नहीं बल्कि सामाजिक, नैतिक और कानूनी सवालों को भी जन्म दे रहा है।
माइटोकॉन्ड्रियल रिप्लेसमेंट थैरेपी (Mitochondrial Replacement Therapy - MRT) एक नवीनतम आईवीएफ तकनीक है जिसका उद्देश्य माइटोकॉन्ड्रियल बीमारियों को अगली पीढ़ी तक पहुंचने से रोकना है।
यह तकनीक पहली चरण में जैविक मां के अंडाणु को लिया जाता है जिसमें माइटोकॉन्ड्रिया में दोष होता है। दूसरे चरण में उस अंडाणु से नाभिकीय डीएनए को अलग कर लिया जाता है। तीसरे चरण में एक स्वस्थ महिला (डोनर) के अंडाणु से माइटोकॉन्ड्रिया को बरकरार रखते हुए उसका नाभिक हटाया जाता है। चौथे चरण में जैविक मां का नाभिकीय डीएनए उस डोनर अंडाणु में प्रत्यारोपित किया जाता है और पांचवें चरण में इसे जैविक पिता के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न भ्रूण में 99% डीएनए जैविक मां और पिता का होता है, जबकि मात्र 1% डीएनए डोनर महिला का होता है, जो माइटोकॉन्ड्रिया प्रदान करती है।
माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका की "बैटरी" कहा जाता है क्योंकि यह कोशिका को ऊर्जा प्रदान करता है। माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mtDNA) केवल मां से संतान में स्थानांतरित होता है और इसमें कोई दोष होने पर यह शरीर की ऊर्जा प्रणाली को प्रभावित कर सकता है, जिससे गंभीर बीमारियां हो सकती हैं, जैसे- हृदय और लिवर फेलियर, मांसपेशियों की दुर्बलता, दृष्टि और श्रवण दोष, डायबिटीज और न्यूरोलॉजिकल समस्याएं।
ब्रिटेन के न्यूकैसल में पहली बार MRT तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया। ब्रिटेन ने 2015 में इस तकनीक को कानूनी मान्यता दी, और 2023-25 के बीच 8 ऐसे बच्चे जन्म ले चुके हैं जो पूरी तरह से स्वस्थ हैं।
यह तकनीक इसलिए जरूरी था कि माइटोकॉन्ड्रियल बीमारियों का कोई स्थायी इलाज नहीं है। मां के दोषपूर्ण माइटोकॉन्ड्रिया को अगली पीढ़ी में न जाने देने का यह एकमात्र तरीका है। असमर्थ दंपत्तियों को संतान सुख देने की नई आशा है।
ब्रिटेन की ह्यूमन फर्टिलाइजेशन एंड एम्ब्रियोलॉजी अथॉरिटी (HFEA) के अनुसार, माइटोकॉन्ड्रिया डोनर को कानूनी माता-पिता नहीं माना जाता है। चूंकि उनका डीएनए योगदान मात्र 1% होता है, इसलिए उन्हें जैविक अधिकार नहीं दिया जाता है। लेकिन एक सवाल बना हुआ है कि क्या बच्चे को यह जानने का अधिकार होगा कि उसका तीसरा डीएनए कहां से आया?
कुछ मामलों में, डोनर अंडाणु को उसी पुरुष के शुक्राणु से निषेचित नहीं किया जाता जिससे जैविक मां का अंडाणु निषेचित किया गया हो। इसका कारण यह है कि यदि डोनर महिला, पिता के रिश्तेदार हो, तो आनुवंशिक जटिलताएं बढ़ सकती हैं। ऐसे में एक दूसरे पुरुष के शुक्राणु का उपयोग किया जाता है। परिणामस्वरूप बच्चे के डीएनए में दो पुरुष और दो महिलाएं शामिल हो सकते हैं।
पशु परीक्षणों में यह देखा गया है कि जब नाभिकीय और माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए में सामंजस्य नहीं होता है, तो परिणाम गंभीर हो सकता है। अनुवांशिक संघर्ष से कोशिकाएं असामान्य रूप से व्यवहार कर सकता है। लंबी अवधि में कुछ बीमारियों के प्रवृत्ति अधिक हो सकता है। इसके बावजूद अब तक जन्मे 8 बच्चे पूरी तरह से स्वस्थ हैं।
ब्रिटेन पहला और फिलहाल एकमात्र देश है जिसने MRT तकनीक को कानूनी मान्यता दी गई है। अमेरिका, जापान, जर्मनी, भारत जैसे देशों में यह तकनीक अभी नैतिक और कानूनी समीक्षा के अधीन है। भारत में भी ICMR (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद) इस तकनीक पर अध्ययन कर रही है। धार्मिक और सांस्कृतिक बाधाएं इस तकनीक की स्वीकृति में सबसे बड़ी चुनौती हैं।
अन्य आनुवंशिक रोगों हंटिंगटन, थैलेसीमिया, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी जैसे रोगों में उपयोग संभव है। बालक की आंखों का रंग, बुद्धिमत्ता, ऊंचाई आदि तय करने की कोशिशें भी इसी दिशा में किया जा सकता है। जब एक बच्चे का निर्माण चार लोगों के डीएनए से हो, तो परिवार, मातृत्व, पितृत्व की पारंपरिक अवधारणाएं बदलेंगी।
MRT तकनीक निश्चित रूप से विज्ञान की एक अद्भुत उपलब्धि है। यह उन दंपत्तियों के लिए वरदान है जो माइटोकॉन्ड्रियल बीमारियों के कारण संतान सुख से वंचित रह जाते हैं। हालांकि, इसके साथ जुड़ी नैतिक, सामाजिक और कानूनी चुनौतियों की भी अनदेखी नहीं किया जा सकता है। यह तकनीक जितनी संभावनाएं लेकर आई है, उतने ही सवाल भी। क्या समाज ऐसी तकनीकों को अपनाने के लिए तैयार हैं? क्या हमारी सोच, हमारी नैतिकता इतनी जटिलताओं को स्वीकार कर सकेगा?
