भारत में दूध केवल पोषण का स्रोत नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आस्था और धार्मिक परंपरा का प्रतीक भी है। गौमाता की पूजा हो, मंदिरों में अभिषेक, या व्रत के दौरान फलाहारी प्रसाद, इन सबका अभिन्न हिस्सा है 'शुद्ध दूध'। इसी संवेदनशीलता के बीच एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मुद्दा खड़ा हो गया है, जिसे भारत में लोग 'मांसाहारी दूध' कहकर पुकार रहे हैं।
अमेरिका, भारत को अपने डेयरी उत्पादों का एक बड़ा उपभोक्ता बनाना चाहता है। लेकिन भारत ने इसका तीखा विरोध किया है, खासकर उस दूध को लेकर जो उन गायों से निकाला जाता है जिन्हें ‘ब्लड मील’ खिलाया जाता है। यह विवाद केवल व्यापार का नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और उपभोक्ता अधिकारों से भी जुड़ा है।
वैज्ञानिक तौर पर 'मांसाहारी दूध' जैसा कोई शब्द नहीं है। यह शब्द भारत में सांस्कृतिक और नैतिक चिंता के रूप में उभरा है। इस दूध को मांसाहारी इसीलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह उन गायों से प्राप्त होता है जिन्हें मांस और खून से बने चारा पर पाला गया हो।
इस चारे को ब्लड मील (Blood Meal) कहा जाता है। यह बूचड़खानों में बचे हुए खून और अवशेषों को सुखाकर बनाए गए पाउडर से बनता है। इसे पशु आहार में मिलाकर गायों को दिया जाता है। इससे गायों का वजन तेजी से बढ़ता है और वह अधिक दूध देने लगती हैं।
ब्लड मील, मांस-प्रसंस्करण उद्योग का एक उप-उत्पाद है। यह सुअर, मुर्गी, मछली, घोड़ा, भेड़, बकरी, यहां तक कि पालतू जानवरों जैसे कुत्ते और बिल्लियों का खून और फैट से तैयार किया जाता है। इन अवशेषों को उच्च तापमान पर सुखाया जाता है, फिर उन्हें पाउडर के रूप में पीसा जाता है। इसे जानवरों के चारे में मिलाया जाता है, खासकर गायों, सूअरों और मुर्गियों के आहार में। ब्लड मील में उच्च मात्रा में प्रोटीन होता है, जो पशु पालन को सस्ता और अधिक उत्पादन वाला बनाता है। लेकिन इसके नैतिक और धार्मिक पक्ष भारत जैसे देश में विवाद का कारण बनता है।
भारत में दूध का संबंध केवल पोषण से नहीं है, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं से भी है। हिन्दू धर्म में गाय को पवित्र माना जाता है। दूध, दही, घी, मक्खन और छाछ, पंचगव्य के रूप में पूजा जाता है। सतोगुणी भोजन में मांस, अंडा, शराब और अन्य तमसिक वस्तुएं वर्जित माना जाता है। कई व्रतों, पूजा और यज्ञों में केवल शुद्ध दूध की अनिवार्यता होती है। यदि उस दूध की उत्पत्ति ऐसे मवेशियों से हुई है जिन्हें मांसाहारी चारा दिया गया है, तो धार्मिक दृष्टिकोण से वह दूध अपवित्र माना जाएगा। यही कारण है कि भारत सरकार ने अमेरिका की इस मांग का कड़ा विरोध किया है।
अमेरिका में डेयरी उद्योग पूर्ण रूप से औद्योगिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से संचालित होता है। वहां उत्पादन पर जोर होता है, न कि गायों की पूजा या धार्मिक भावनाओं पर। ब्लड मील जैसे प्रोटीनयुक्त पशु आहार को किफायती और पोषक विकल्प के रूप में देखा जाता है। कोई धार्मिक आपत्ति नहीं होती, इसलिए अमेरिका में यह पूरी तरह वैध और आम है। बड़े ब्रांड्स इसे बिना खुलासा किए उत्पाद में शामिल करते हैं। इसलिए अमेरिका को भारत जैसे बाजार में अपने डेयरी उत्पाद बेचने में समस्या नहीं दिखती, जबकि भारत की धार्मिक संरचना उसे स्वीकार नहीं करती।
हाल ही में हुई भारत-अमेरिका व्यापारिक वार्ता में अमेरिका ने जोर दिया कि भारत अपने डेयरी आयात नियमों को उदार बनाए। अमेरिका को भारत में डेयरी उत्पाद बेचने की अनुमति दी जाए।
भारत ने स्पष्ट किया है कि धार्मिक और सांस्कृतिक आपत्तियां इस पर निर्णय का आधार होगी। ऐसे उत्पादों के लिए लेबलिंग अनिवार्य होनी चाहिए, जैसे कि "पशु-आधारित चारा खिलाए गए मवेशियों से प्राप्त"। कठोर प्रमाणीकरण प्रणाली होनी चाहिए जिससे उपभोक्ता को वस्तु की पूरी जानकारी हो।
भारत में भी कुछ निजी डेयरी फार्म उत्पादकता बढ़ाने के लिए आयातित या स्थानीय रूप से तैयार ब्लड मील का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया नियमित रूप से मॉनिटर नहीं होती। कोई स्पष्ट नियम या निगरानी व्यवस्था नहीं है कि क्या गायों को क्या खिलाया गया है। पारंपरिक डेयरी फार्म आज भी गोशालाओं में हरा चारा, भूसा और खली खिलाते हैं। फार्म टू फोर्क ट्रेसिंग सिस्टम की कमी के कारण आम उपभोक्ता को पता नहीं होता कि दूध कहां से आया है।
भारत में उपभोक्ता संरक्षण कानून कहता है कि ग्राहक को यह जानने का अधिकार है कि वह क्या खा रहा है, कहां से आया है और कैसे बना है। इसलिए लेबलिंग और स्रोत की पारदर्शिता बेहद जरूरी है, खासकर ऐसे उत्पादों के लिए जो धर्म-संवेदनशील हैं। अमेरिका से आयातित दूध या घी यदि 'ब्लड मील' आधारित पशुओं से आया हो, तो उपभोक्ता को पहले से सूचना दी जानी चाहिए।
भारत में इस मुद्दे पर सियासत भी गर्म है हिन्दू संगठनों ने इस प्रस्ताव को “धार्मिक अपवित्रता” करार दिया है। स्वदेशी जागरण मंच और अन्य संगठन, सरकार से मांग कर रहे हैं कि वह ऐसे आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए। पशु अधिकार कार्यकर्ता भी इस मुद्दे से जुड़े हैं, जो चाहते हैं कि सभी जानवरों को नैतिक तरीके से पाला जाए। खादी ग्रामोद्योग और स्वदेशी डेयरी समर्थक संगठनों ने भी अमेरिका के इस दूध को “संस्कृति पर हमला” कहा है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से ब्लड मील खिलाई गई गायों के दूध में कोई प्रत्यक्ष स्वास्थ्य नुकसान नहीं पाया गया है। लेकिन एंटीबायोटिक्स, हार्मोन और पोषण स्तर में बदलाव हो सकता है। एलर्जी और संवेदनशील उपभोक्ताओं को इससे समस्या हो सकता है। शुद्धता और स्वच्छता के मानक हमेशा सवालों के घेरे में रहता है। भारत में आम धारणा यह है कि गायों को अगर मांस आधारित चारा दिया जाए तो उनका दूध “सत्वगुणी” नहीं रह जाता है।
भारत को अपनी सांस्कृतिक सीमाओं को बनाए रखते हुए व्यापारिक दबाव का समाधान खोजना होगा। सख्त प्रमाणीकरण प्रणाली विकसित किया जाना चाहिए, जैसे 'शुद्ध शाकाहारी' लेबल, QR कोड स्कैन से दूध की उत्पत्ति पता चले, ब्लड मील आधारित उत्पादों पर प्रतिबंध या आयात पर अलग टैक्स/शुल्क, घरेलू डेयरी उद्योग को संरक्षण, स्वदेशी गोशालाओं को बढ़ावा और छोटे किसानो को सब्सिडी। उपभोक्ताओं को जागरूक करने के लिए मीडिया, अभियान, स्कूलों में जानकारी, उत्पादों पर स्पष्ट लेबलिंग अनिवार्य होनी चाहिए।
भारत में दूध का सवाल केवल स्वास्थ्य का नहीं है, बल्कि एक धार्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक परिप्रेक्ष्य से भी जुड़ा हुआ है। 'मांसाहारी दूध' केवल शब्द नहीं, बल्कि उस चिंता का प्रतीक है जो भारत की आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण की बात करता है।
अमेरिका को यह समझना होगा कि व्यापारिक लाभ से बढ़कर हैं कुछ मूल्य, और भारत को अपने संविधान, संस्कृति और उपभोक्ताओं की रक्षा के लिए सशक्त नीति बनानी होगी।
