सावन महीना में भगवान महादेव पर जल चढ़ाने का बड़ा महत्व है

Jitendra Kumar Sinha
0




भारतवर्ष की सनातन परंपरा में श्रावण मास का विशेष महत्व है। यह महीना न केवल ऋतुओं के परिवर्तन का प्रतीक है, बल्कि अध्यात्म और भक्ति का चरम उत्सव भी है। खासकर शिव भक्तों के लिए यह महीना पूर्णतः भगवान महादेव को समर्पित होता है। सावन में कांवड़ लेकर शिवलिंग पर जलाभिषेक करना केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि आत्मा के शुद्धिकरण और परमात्मा से जुड़ने का माध्यम है।

पुराणों में वर्णन आता है कि देवताओं और दानवों द्वारा जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें अमृत के साथ-साथ हलाहल विष भी निकला। वह विष इतना घातक था कि पूरे ब्रह्मांड के अस्तित्व पर संकट छा गया। तब सभी देवता भगवान शंकर के पास पहुँचे। करुणासागर महादेव ने उस विष को स्वयं पीकर संसार की रक्षा की। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और तभी से वे 'नीलकंठ' कहलाए। विष की ज्वाला को शांत करने हेतु उनके ऊपर जल चढ़ाया गया और तभी से यह परंपरा चला आ रहा है कि सावन के महीने में शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाकर उन्हें शीतलता प्रदान की जाए।

सावन में कांवड़ लेकर शिव को जल चढ़ाने की परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस पर कई मत हैं। शिवभक्त रावण की कथा प्रसिद्ध है कि जब महादेव ने विष पिया था, तब रावण ने हिमालय से जल लेकर कांवड़ में भरकर भगवान शिव पर जलाभिषेक किया था। इससे विष का प्रभाव शांत हुआ। तब से कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

कुछ विद्वानों के अनुसार, भगवान परशुराम ने सबसे पहले उत्तर प्रदेश के हापुड़ जनपद में गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर ‘पुरा महादेव’ शिवलिंग का अभिषेक किया था। आज भी श्रद्धालु ब्रजघाट (गढ़मुक्तेश्वर) से गंगाजल लाकर उसी परंपरा को निभाते हैं।

मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने सुलतानगंज (बिहार) से गंगाजल भरकर देवघर के बैद्यनाथ धाम में जलाभिषेक किया था। यही वजह है कि सुलतानगंज से देवघर तक की कांवड़ यात्रा आज भी अति प्रसिद्ध है।

त्रेता युग के आदर्श पुत्र श्रवण कुमार, जिन्होंने कांवड़ में अपने अंधे माता-पिता को बैठाकर तीर्थयात्रा कराया था, उन्हें भी कांवड़ यात्रा का प्रेरणास्रोत माना जाता है। वह हरिद्वार से गंगाजल लाकर आगे बढ़े थे, जिससे यह परंपरा जनमानस में रच-बस गया है। 

कांवड़ न केवल एक साधन है जल ले जाने का, बल्कि यह संतुलन, श्रद्धा और तपस्या का प्रतीक है। इसका दो सिरे वाला ढांचा दर्शाता है कि जीवन में संतुलन, संयम और समर्पण जरूरी है। गंगाजल पवित्रता और जीवन का प्रतीक है। नंगे पांव चलना तपस्या और कठिन साधना का प्रतीक है। बोल बम का जयघोष शिव के प्रति प्रेम और उत्साह की अभिव्यक्ति है। संतुलन में कांवड़ उठाना आत्मसंयम और मर्यादा का परिचायक है।

देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। सावन में यहाँ जलाभिषेक के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु सुलतानगंज से कांवड़ लेकर लगभग 105 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हैं। यह यात्रा न केवल शारीरिक कठिनाइयों से भरा होता है, बल्कि आध्यात्मिक साधना का रूप भी लेता है।

सुलतानगंज की खासियत है यहाँ की गंगा दक्षिणवर्ती है, जिससे यह क्षेत्र पवित्र माना जाता है। जल उठाने के बाद नियम है जल उठाने के बाद कांवड़िया सीधे बाबा बैद्यनाथ के दर्शन करके ही जलाभिषेक करते हैं। जल रखते समय उन्हें कुछ भी खाना नहीं होता है। श्रावणी मेला है एक माह तक चलने वाला यह आयोजन झारखंड सरकार द्वारा आयोजित किया जाता है।

इन राज्यों में कांवड़ यात्रा एक विशाल सामाजिक-धार्मिक उत्सव में बदल गया है। बक्सर, आरा, भागलपुर, नालंदा और गया में शिवमंदिरों में विशेष आयोजन होता है। बिहटा का शिवमंदिर, वैशाली का बावन पोखर और मुजफ्फरपुर का बाबा गरीबनाथ मंदिर सावन में शिवभक्तों से गुलजार रहता है। महिलाएं भी कांवड़ उठाने लगी हैं यह सामाजिक परिवर्तन का भी प्रतीक है।

पहले केवल पुरुष ही कांवड़ यात्रा करते थे, लेकिन अब महिलाएं और बच्चे भी बड़े उत्साह से इसमें भाग ले रहे हैं। महिलाएं प्रतिदिन मंदिर जाकर जल चढ़ाती हैं। सोमवार व्रत रखकर शिवलिंग पर जल, बेलपत्र, धतूरा, आक, पुष्प अर्पण करती हैं। बच्चे छोटे-छोटे कांवड़ लेकर स्थानीय मंदिरों तक यात्रा करते हैं। 'छोटे बोल बम' और 'बच्चा कांवड़िया' जैसे विशेष आयोजन विद्यालयों और मोहल्लों में होता हैं।

कांवड़ यात्रा के दौरान लाखों श्रद्धालु पैदल चलते हैं, जिससे कई बार प्रशासनिक व्यवस्था की परीक्षा होती है। अस्थायी अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, पेयजल व्यवस्था किया जाता है। सुरक्षा के लिए पुलिस बल और आपदा प्रबंधन की टीमें तैनात होती हैं। भजन मंडली, शिव कथा वाचन और शिव बारात जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कई स्थानों पर सामाजिक संगठन नि:शुल्क भोजन, चाय और विश्राम स्थल उपलब्ध कराते हैं।

कांवड़ यात्रा केवल एक तीर्थ नहीं है, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय एकता का भी संदेश देती है।धार्मिक पहलु है शिवभक्ति, तपस्या और आत्मानुशासन। सामाजिक पहलु है सहयोग, सहनशीलता और सहभागिता की भावना। सांस्कृतिक पहलु है लोक गीत, लोक नृत्य, भजन और परंपरा का संरक्षण। पर्यावरणीय पहलु है नदी जल की पवित्रता का सम्मान और संरक्षण का संदेश।

सावन के प्रत्येक सोमवार को शिवभक्त विशेष व्रत रखते हैं। प्रातः स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनते हैं। जल, दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अभिषेक करते हैं। ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जप करते हैं। दिनभर निराहार रहकर शाम को फलाहार करते हैं। बेलपत्र, धतूरा, आक, सफेद पुष्प चढ़ाए जाते हैं। यह व्रत कुंवारी कन्याओं द्वारा उत्तम वर के लिए और विवाहित स्त्रियों द्वारा पति की दीर्घायु हेतु रखा जाता है।

भगवान शिव पर जल चढ़ाने का तात्पर्य केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह हमारे भीतर की अग्नि— काम, क्रोध, लोभ, मोह को शांत करने की प्रक्रिया है। जल = शीतलता = मन की स्थिरता। कांवड़ = तपस्या = इच्छाओं पर नियंत्रण। नंगे पांव यात्रा = विनम्रता और अहंकार का विसर्जन। बोल बम = ऊर्जा का जागरण और सामूहिक चेतना।

सावन की कांवड़ यात्रा सनातन धर्म की समर्पण भावना, सहनशीलता और श्रद्धा का प्रतीक है। यह यात्रा केवल गंगाजल को शिवलिंग तक पहुँचाने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा है। भगवान शिव, जो भूतभावन, औघड़दानी और करुणामय हैं, अपने भक्तों के हर श्रम को स्वीकार करते हैं। "जहाँ संकल्प होता है, वहाँ भगवान मिलते हैं। जहाँ समर्पण होता है, वहाँ शिव प्रकट होते हैं। और जहाँ भक्ति होती है, वहाँ जीवन सफल हो जाता है।"



एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!
To Top