शराबबंदी: राज्य को होने वाला आर्थिक और सामाजिक नुकसान

Jitendra Kumar Sinha
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शराब पर प्रतिबंध यानी "शराबबंदी" एक ऐसा विषय है जो भावनात्मक, सामाजिक और नैतिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है। कई राज्य सरकारें इसे जनता की मांग और सामाजिक शुद्धता के नाम पर लागू करती हैं। लेकिन अक्सर इस नैतिक निर्णय के पीछे आर्थिक और प्रशासनिक सच्चाइयों की अनदेखी होती है।


राज्य सरकारों के लिए शराब बिक्री पर लगने वाला आबकारी कर (Excise Duty) एक प्रमुख आय स्रोत होता है। उदाहरण के लिए:

  • बिहार में शराबबंदी से पहले सरकार को हर साल लगभग 5000 करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा था।

  • तमिलनाडु, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में यह आंकड़ा और भी ऊँचा है।


जब शराबबंदी लागू होती है, तो यह सीधा असर राज्य की अर्थव्यवस्था और विकास योजनाओं पर डालता है। स्कूल, अस्पताल, सड़कों के निर्माण जैसी योजनाएं इस राजस्व की मदद से ही चलती हैं।


अवैध शराब कारोबार का फलना-फूलना

जहां वैध शराब पर रोक लगती है, वहां अवैध शराब का कारोबार तेजी से पनपता है। यह तस्करी, जहरीली शराब और माफियाओं के नियंत्रण वाले बाजार को बढ़ावा देता है।

  • इससे न केवल सरकार को राजस्व का नुकसान होता है, बल्कि

  • जनता की जानमाल की सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाती है।

बिहार, गुजरात और नागालैंड जैसे राज्यों में शराबबंदी के बाद जहरीली शराब से कई मौतें हो चुकी हैं।


पुलिस और प्रशासन पर बढ़ता दबाव

शराबबंदी के बाद पुलिस का एक बड़ा हिस्सा शराब पकड़ने, छापे मारने और केस दर्ज करने में व्यस्त हो जाता है।

  • इससे अन्य गंभीर अपराधों की जांच पर ध्यान कम हो जाता है।

  • साथ ही भ्रष्टाचार की संभावना भी बढ़ जाती है क्योंकि अवैध कारोबार चलाने वाले लोग पुलिस को रिश्वत देकर काम निकालते हैं।


पर्यटन उद्योग को झटका

कई बार विदेशी और घरेलू पर्यटक भी उन जगहों पर जाना पसंद करते हैं जहां शराब वैध रूप से उपलब्ध हो।

  • शराबबंदी से राज्य का पर्यटन उद्योग प्रभावित होता है।

  • होटल, बार, रेस्टोरेंट और फूड सेक्टर को भी घाटा उठाना पड़ता है।


बेरोजगारी और उद्योग पर असर

शराब निर्माण, डिस्ट्रीब्यूशन, होटलिंग और रिटेल सेक्टर में लाखों लोग काम करते हैं। शराबबंदी से:

  • फैक्ट्रियां बंद हो जाती हैं,

  • होटल व्यवसाय धीमा पड़ जाता है,

  • ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक्स सेक्टर भी प्रभावित होता है।

इससे राज्य में बेरोजगारी बढ़ती है और आर्थिक गतिविधियों में मंदी आती है।


सामाजिक सुधार की विफलता

शराबबंदी का उद्देश्य अकसर समाज को सुधारने का बताया जाता है। लेकिन हकीकत में:

  • लोग चोरी-छिपे शराब पीते हैं,

  • महिलाएं अब भी घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं,

  • और नशे के अन्य विकल्प जैसे ड्रग्स, अफीम, गांजा आदि बढ़ने लगते हैं।

इससे समाज में नैतिक गिरावट आती है और शराबबंदी अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाती।


नैतिकता बनाम व्यावहारिकता

शराबबंदी एक आदर्शवादी सोच हो सकती है, लेकिन एक राज्य की वास्तविक जरूरतों और संरचनात्मक आवश्यकताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

सरकारों को चाहिए कि वे शराब की बिक्री को नियंत्रित करें, जनजागरूकता फैलाएं, नशामुक्ति केंद्रों को बढ़ावा दें – लेकिन पूर्ण प्रतिबंध लागू करके राजस्व, रोजगार, सुरक्षा और सामाजिक संरचना को दांव पर न लगाएं।


समाधान प्रतिबंध नहीं, बल्कि संतुलन है।

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