भारत का इतिहास केवल विजय और वैभव से भरा नहीं है, बल्कि कुछ ऐसे क्षण भी इसमें दर्ज हैं जो हर भारतीय के मन को सालते हैं। 1962 का भारत-चीन युद्ध और उसके बाद की प्रतिक्रियाएं, विशेष रूप से तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की कथित उदासीनता, उन घटनाओं में सबसे प्रमुख हैं।
इस लेख में हम विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे – कैसे चीन ने भारत को धोखा दिया, कैसे पंडित नेहरू की विदेश नीति इस युद्ध की भूमिका बनी, कैसे पवित्र कैलाश पर्वत और अक्साई चिन जैसे रणनीतिक क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया गया और कैसे एक राष्ट्र-नेता ने सिर्फ इतना कहकर मामले को रफा-दफा कर दिया – "जो चला गया, वो चला गया।"
पंडित नेहरू की चीन नीति: 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का भ्रम
नेहरू ने तिब्बत पर चीन के कब्ज़े को भी खामोशी से स्वीकार कर लिया। 1950 के दशक में जब चीन ने तिब्बत में सैन्य घुसपैठ की और 1959 में दलाई लामा भारत में शरण लेने आए, तब भी नेहरू सरकार ने कड़ा विरोध नहीं जताया।
यह वही समय था जब कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र पर भी चीन ने कब्ज़ा कर लिया।
कैलाश पर्वत – आस्था से परे एक राष्ट्रीय पहचान
हिंदू धर्म में कैलाश पर्वत भगवान शिव का निवास है। यह सिर्फ एक पहाड़ नहीं, बल्कि आत्मा का केंद्र है। बौद्ध, जैन और बोन धर्म के लिए भी यह स्थान अत्यंत पवित्र है।
कैलाश-मानसरोवर भारत के धार्मिक नक्शे में वैसा ही स्थान रखता है जैसा मक्का इस्लाम में।
लेकिन नेहरू सरकार ने इस क्षेत्र को तिब्बत का हिस्सा मानते हुए, उस पर चीन के कब्ज़े को चुपचाप स्वीकार कर लिया। इसके विरोध में न तो कोई अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज़ उठाई गई, न ही भारत की जनता को इस फैसले की पारदर्शिता से जानकारी दी गई।
1962: जब चीन ने किया धोखा
1950 और 60 के दशक में भारत और चीन के संबंध ऊपर से मधुर दिखते थे, लेकिन अंदर ही अंदर सीमा विवाद, विशेषकर अक्साई चिन क्षेत्र को लेकर तनाव बढ़ रहा था। चीन ने गुपचुप तरीके से अक्साई चिन में सड़क बनानी शुरू कर दी, जो भारत के लद्दाख क्षेत्र में आता था।
जब भारत ने विरोध किया, तब चीन ने जवाबी हमला किया। अक्टूबर 1962 में चीन ने पूर्वी और पश्चिमी मोर्चों पर हमला कर दिया।
भारत तैयार नहीं था। हमारी सेनाएं पुराने हथियारों, अपर्याप्त राशन और पर्वतीय युद्ध की तैयारी के बिना युद्ध में भेजी गईं।
नेहरू का बयान: “जो चला गया, वो चला गया”
युद्ध के अंत में चीन ने अक्साई चिन का लगभग 38,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कब्ज़े में ले लिया। इस ज़मीन में वह क्षेत्र भी शामिल था जो कैलाश-मानसरोवर की ओर जाता है।
जब संसद में इस मुद्दे पर चर्चा हुई और जनता में आक्रोश था, तब नेहरू का प्रसिद्ध (या कुख्यात) बयान सामने आया:
"वह क्षेत्र बंजर है, वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता।"
और फिर –
"जो चला गया, वो चला गया।"
यह एक राष्ट्रीय आत्मा पर चोट जैसा था। जनता यह सवाल पूछ रही थी कि क्या सिर्फ भूगोल ही अहम है? हमारी आस्था, संस्कृति, और मातृभूमि का क्या? क्या नेता इतनी आसानी से जमीन और सम्मान खो सकते हैं?
आस्था से समझौता: एक धर्मनिरपेक्षता का भ्रम
नेहरू का झुकाव कट्टर धर्मनिरपेक्षता की ओर था। उनके लिए धर्म का कोई स्थान नीति-निर्माण में नहीं होना चाहिए। इसी कारण उन्होंने कभी कैलाश-मानसरोवर जैसे धार्मिक मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश नहीं की।
यदि इस मुद्दे को एक धार्मिक अधिकार के रूप में संयुक्त राष्ट्र में उठाया जाता, तो चीन पर दबाव बन सकता था। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के लिए यह “संप्रदायवाद” प्रतीत होता था, और वे इसे पूरी तरह से टाल गए।
कूटनीतिक पलायन और राष्ट्र की कमजोरी
1962 की हार केवल सैन्य हार नहीं थी, यह राजनीतिक इच्छाशक्ति की हार थी। भारत के पास अगर नेतृत्व में दृढ़ता होती, तो कैलाश जैसे पवित्र स्थलों को यूँ चुपचाप खोना नहीं पड़ता।
चीन ने उस समय भारत को एक कमजोर राष्ट्र मान लिया – और आज तक यह धारणा कई बार उनके व्यवहार में झलकती है।
वर्तमान स्थिति: अब भी कैलाश चीन के कब्जे में
यह स्थिति केवल एक सांस्कृतिक अपमान ही नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र राष्ट्र की संप्रभुता पर भी सवाल है।
समाधान और रास्ता आगे का
अब जबकि भारत की भू-राजनीतिक स्थिति और सैन्य ताकत पहले से कहीं बेहतर है, तब जरूरी है:
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कैलाश-मानसरोवर पर भारत का आधिकारिक दावा पुनः दर्ज हो
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अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत इसे धार्मिक अधिकार और ऐतिहासिक सत्य के रूप में प्रस्तुत करे
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भारत-चीन संबंधों में यह मुद्दा केवल यात्रा तक सीमित न रहकर राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रश्न बने
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आने वाली पीढ़ियों को 1962 की गलतियों से अवगत कराया जाए
‘जो चला गया’, वह वापसी की प्रतीक्षा में है
कैलाश पर्वत, अक्साई चिन, और 1962 की हार – ये केवल भौगोलिक नुकसान नहीं हैं। यह इतिहास की चेतावनी है कि राजनीतिक आदर्शवाद और मूल्यविहीन नेतृत्व किसी भी राष्ट्र को घुटनों पर ला सकता है।
अब वक्त है जागने का, पुनः जागरण का, और यह संकल्प लेने का कि हम जो खो बैठे, वह केवल नेहरू की गलती नहीं – वह हमारी अगली पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि उसे फिर से पाया जाए।
