जब दूध भी मांसाहारी बन गया: भारत-अमेरिका व्यापार में आस्था बनाम आयात की टकराहट

Jitendra Kumar Sinha
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अमेरिका और भारत के बीच व्यापार समझौते की बातचीत एक बेहद अनोखे मुद्दे पर आकर अटक गई है — मांसाहारी दूध। जी हाँ, आपने सही पढ़ा। मांसाहारी दूध। सुनने में अजीब लगता है, पर इसका मतलब है ऐसा दूध जो उन गायों से निकाला गया हो जिन्हें मांस आधारित आहार दिया गया हो। अमेरिका में डेयरी फार्मों में गायों को अधिक दूध देने के लिए उनके चारे में जानवरों के अंगों से बनी चीजें मिलाई जाती हैं — जैसे मछली का पाउडर, सूअर की चर्बी, मुर्गियों के पंख, हड्डियाँ और यहां तक कि घोड़े के खून से बने सप्लीमेंट्स। इस तरह के आहार से भले ही गायें स्वस्थ दिखें और ज्यादा दूध दें, लेकिन भारत जैसे देश में, जहां गाय को माता माना जाता है और दूध एक पवित्र पदार्थ समझा जाता है, वहां यह पूरी व्यवस्था न केवल अस्वीकार्य है बल्कि अपवित्र भी मानी जाती है।


भारत ने अमेरिकी डेयरी उत्पादों को आयात करने की शर्तों में साफ-साफ यह नियम रखा है कि वो सिर्फ उन्हीं डेयरी उत्पादों को मंजूरी देगा जिनमें इस्तेमाल होने वाली गायें पूरी तरह शाकाहारी आहार पर पाली गई हों। अमेरिका इस शर्त को न केवल अनुचित मानता है बल्कि उसने इसे वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन (WTO) तक घसीट लिया है। उसका तर्क है कि भारत धार्मिक कारणों से व्यापार में अनावश्यक रुकावट डाल रहा है। अमेरिका को लगता है कि भारत जानबूझकर अपने घरेलू डेयरी उद्योग की रक्षा के नाम पर अमेरिकी कंपनियों को बाहर रखने की कोशिश कर रहा है।


लेकिन भारत का पक्ष भी कम मजबूत नहीं है। भारत में दूध सिर्फ एक खाद्य पदार्थ नहीं है, यह संस्कृति, आस्था और जीवित परंपराओं से जुड़ा है। यहां हर गली-मुहल्ले में लोग गाय की पूजा करते हैं, और यह मानते हैं कि गाय के दूध में जीवनदायिनी शक्ति होती है। ऐसे में अगर उस गाय ने मांस खाया हो, तो वो दूध धार्मिक रूप से अपवित्र मान लिया जाता है। सरकार का तर्क है कि अगर अमेरिकी डेयरी उत्पादों को बिना रोक-टोक मंजूरी दी गई तो भारत के लगभग नौ लाख करोड़ रुपये मूल्य के घरेलू डेयरी उद्योग को गंभीर झटका लगेगा। छोटे किसान, ग्रामीण महिलाएं और सहकारी समितियां इससे बुरी तरह प्रभावित होंगी और हर साल लगभग 1.03 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ सकता है।


अमेरिका इस पूरे विवाद को व्यापार में बाधा कह रहा है, लेकिन भारत इसे सांस्कृतिक अखंडता और आत्मनिर्भरता का सवाल मान रहा है। भारतीय किसान संगठन भी सरकार के फैसले के साथ खड़े हैं। उनका मानना है कि अगर विदेशी कंपनियों को ऐसे नियमों के बिना भारत में घुसने दिया गया, तो न केवल भारतीय दूध उद्योग तबाह हो जाएगा, बल्कि हमारी आस्थाएं भी आहत होंगी। यह विवाद बताता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में भी कुछ मुद्दे सिर्फ व्यापारिक नहीं होते, वे भावनाओं, परंपराओं और जीवन के मूल्यों से भी जुड़े होते हैं।


तो भले ही अमेरिका इसे विज्ञान और व्यापार का मामला माने, भारत के लिए यह गाय माता की गरिमा और देसी आस्था का सवाल है। और यही कारण है कि भारत ने ‘मांसाहारी दूध’ को मंजूरी देने से साफ मना कर दिया है, चाहे उसके बदले व्यापारिक लाभ कितना ही बड़ा क्यों न हो।

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