देश की सर्वोच्च अदालत, जो वर्षों से न्याय की व्याख्या करती रही है, अब अपने आंतरिक ढांचे में भी सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को लागू कर रही है। पहली बार सर्वोच्च न्यायालय की स्टाफ भर्ती में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण देने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है। इससे पहले सिर्फ अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) को ही आरक्षण का लाभ मिलता था। अब इस निर्णय के साथ ही दिव्यांगजन, पूर्व सैनिक और स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों को भी आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाएगी।
यह निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवई के नेतृत्व में लिया गया है। उनके आदेश के तहत “सर्वोच्च न्यायालय अधिकारी एवं सेवक नियम, 1961” में संशोधन किया गया है, जिससे अब आरक्षण की व्यवस्था व्यापक और समावेशी हो गया है। यह कदम न केवल संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि करता है, बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में एक बड़ा और साहसिक प्रयास भी है।
अब तक सर्वोच्च न्यायालय की भर्तियों में केवल SC/ST वर्गों को ही आरक्षण मिलता था, जबकि OBC को इससे बाहर रखा गया था। यह स्थिति अक्सर सवालों के घेरे में रही है, खासकर तब, जब केंद्र और राज्यों की नौकरियों में OBC को आरक्षण का लाभ मिलता रहा है। यह निर्णय इस असमानता को दूर करने की दिशा में एक ठोस पहल है।
नए नियमों के तहत दिव्यांगजन, पूर्व सैनिक, और स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रित को भी सर्वोच्च न्यायालय की भर्तियों में आरक्षण मिलेगा। यह समावेशी दृष्टिकोण न केवल संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है, बल्कि यह सामाजिक दृष्टि से वंचित तबकों को मुख्यधारा में लाने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
यह निर्णय न्यायपालिका के भीतर समान अवसर की दिशा में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है। वर्षों से यह मांग उठती रही है कि अदालतों के प्रशासनिक ढांचे में भी वही सिद्धांत लागू हों, जो देश की बाकी सरकारी संस्थाओं में लागू हैं। इस फैसले से न्यायपालिका में पारदर्शिता और प्रतिनिधित्व का नया अध्याय शुरू हुआ है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं और आरक्षण के पक्षधर विशेषज्ञों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का स्वागत किया है। उनका मानना है कि यह कदम न केवल सामाजिक समरसता को बढ़ाएगा, बल्कि ओबीसी वर्ग के युवाओं में भी न्यायपालिका को लेकर भरोसा और जुड़ाव बढ़ाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ओबीसी सहित अन्य वंचित वर्गों को आरक्षण देने का निर्णय भारतीय लोकतंत्र में न्याय के समावेशी विस्तार का मिसाल है। यह न केवल नीति का परिवर्तन है, बल्कि मानसिकता और दृष्टिकोण का भी व्यापक परिवर्तन है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह पहल अन्य संवैधानिक संस्थाओं को भी प्रेरित करेगी।
