फील्ड मार्शल आसिम मुनीर कर सकते हैं ज़रदारी और शरीफ को बाहर

Jitendra Kumar Sinha
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पाकिस्तान की राजनीति एक बार फिर उथल-पुथल के दौर में है। सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर और राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के बीच मतभेदों की खबरों ने सत्ता परिवर्तन की अटकलों को हवा दे दी है। इस बार चर्चा का केंद्र है “ऑपरेशन सिंदूर” और जुलाई महीने में संभावित राजनीतिक बदलाव। ज़रदारी के बेटे बिलावल भुट्टो द्वारा दिए गए हालिया बयान, जिसमें उन्होंने आतंकियों को भारत सौंपने की मांग की थी और सेना प्रमुख पर सवाल उठाया, इसे इस टकराव की चिंगारी माना जा रहा है।


मई 2025 में ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद आसिम मुनीर को पाकिस्तान का फील्ड मार्शल बनाया गया। यह ओहदा 1959 के बाद पहली बार किसी को मिला है। राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने उन्हें आधिकारिक रूप से यह पद सौंपा और उनकी बहादुरी व रणनीतिक कुशलता की प्रशंसा की थी। लेकिन अब उन्हीं नेताओं के खिलाफ मुनीर की कार्रवाई की संभावनाएं जताई जा रही हैं।


इस पूरे घटनाक्रम के बीच पाकिस्तान के बाहर भी प्रतिक्रियाएं दिखीं। न्यूयॉर्क टाइम्स स्क्वायर पर चलने वाले डिजिटल होर्डिंग्स में मुनीर और शरीफ को “फ्रॉड मार्शल” जैसे शब्दों से संबोधित किया गया। सोशल मीडिया पर भी सेना का मज़ाक उड़ाया गया, खासकर एक तस्वीर को लेकर जिसमें ऑपरेशन बुनियान-ए-मरसोस की नकली छवि शरीफ को गिफ्ट के रूप में दी गई थी। वो चित्र असल में चीन से संबंधित था।


विशेषज्ञ इसे पाकिस्तान में सैन्य सत्ता के मजबूत होते कदमों के तौर पर देख रहे हैं। मुनीर ने केवल सेना में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, खुफिया एजेंसियों और सरकारी तंत्र में भी अपनी पकड़ मजबूत की है। ऐसे में यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या पाकिस्तान एक बार फिर सैन्य शासन की ओर बढ़ रहा है, जैसा 1977 में ज़िया-उल-हक़ और 1999 में परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में हुआ था।


इस बीच, जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी इस पूरे घटनाक्रम पर तीखी प्रतिक्रिया दी है और जनता से सड़कों पर उतरने की अपील की है। आम जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा है और देश एक बार फिर अस्थिरता की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है।


यह सब घटनाएं पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। जहां एक ओर जनता की आवाज दबाई जा रही है, वहीं दूसरी ओर सेना फिर से सत्ता की बागडोर अपने हाथों में लेने की तैयारी कर रही है। अब यह देखना बाकी है कि क्या राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री शरीफ इस दबाव को झेल पाएंगे, या पाकिस्तान एक बार फिर लोकतंत्र से तानाशाही की तरफ मुड़ जाएगा।

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