एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठकर प्रजा की समस्याएं सुन रहे थे, तभी दरबार में अचानक एक बुजुर्ग ब्राह्मण आया। वह थका-हारा, धूल से सना हुआ था, पर उसके चेहरे पर विचित्र आत्मविश्वास था। उसने कहा, "महाराज! मैं वह व्यक्ति हूं जिसने कभी राजा भोज को भी चुनौती दी थी, परंतु अब आपके सिंहासन के विषय में जानने आया हूं। क्या आप सच में उस महान राजा विक्रमादित्य की तरह धर्मशील और न्यायप्रिय हैं?"
यह सुनकर सिंहासन की नौवीं पुतली विटपर्णी ने मुस्कुराते हुए राजा भोज को संबोधित किया, "राजा भोज! जब-जब कोई इस सिंहासन पर बैठने का प्रयास करता है, मैं और मेरी बहनें उसे एक कहानी सुनाती हैं — ताकि वह यह समझ सके कि क्या वह वास्तव में इस आसन के योग्य है। सुनो, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कथा सुनाती हूँ जो बताती है कि कैसे उन्होंने अपने वचन को निभाया और न्याय के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की।"
वाचाल विटपर्णी की कथा
एक बार की बात है, उज्जयिनी में न्याय का प्रतीक राजा विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठे थे। तभी एक अजीब मामला सामने आया। एक युवक रोता हुआ दरबार में आया और बोला, "महाराज! मेरी पत्नी ने मुझे धोखा दिया है। वह मुझसे झूठ बोलकर किसी साधु के साथ चली गई।"
राजा ने मामले की पूरी जांच करने के लिए अपने गुप्तचरों को लगाया। कुछ ही दिनों में पता चला कि वास्तव में वह स्त्री एक साधु के साथ किसी तपोवन में रह रही है और उसे अपना पति बताकर जीवन बिता रही है। यह जानकर विक्रमादित्य ने सैनिकों को भेजकर दोनों को दरबार में बुलवाया।
जब वे दोनों दरबार में आए, तो वह स्त्री निर्भीक होकर बोली, "महाराज! यह युवक मेरा पति नहीं है। मेरा पति तो यही साधु है। मैं तो जन्म-जन्मांतर से इसी की अर्धांगिनी हूं। यह झूठा मुझे बदनाम कर रहा है।"
राजा विक्रमादित्य दुविधा में पड़ गए। उन्हें दोनों पक्षों की बात सुननी थी। उन्होंने तीन दिन का समय लिया और नगर भर में यह घोषणा करवाई कि कोई भी जो इस स्त्री की सच्चाई जानता हो, वह दरबार में आए।
तीन दिन बाद एक वृद्धा आई और बोली, "महाराज! यह स्त्री वास्तव में उस युवक की पत्नी है। यह मैं जानती हूं क्योंकि जब इनका विवाह हुआ था, तब मैं भी वहाँ उपस्थित थी।"
फिर राजा ने उस वृद्धा के कथन की पुष्टि कई और गवाहों से करवाई, और यह स्पष्ट हो गया कि स्त्री झूठ बोल रही थी।
राजा विक्रमादित्य ने उस साधु को बुलाया और पूछा, "तुम एक साधु होकर किसी की पत्नी के साथ कैसे रह सकते हो?"
साधु ने उत्तर दिया, "महाराज! मैं संन्यासी नहीं, केवल एक ढोंगी था। इस स्त्री ने मुझसे संपर्क किया और मैं उसके जाल में फँस गया। अब आप जो उचित दंड दें, मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा।"
राजा ने न्याय के अनुसार दोनों को कारावास का दंड दिया, लेकिन उस युवक को न केवल सम्मानित किया, बल्कि उसे राजकोष से सहायता भी दी और कहा, "जिस समाज में स्त्री या पुरुष अपने कर्तव्यों से विमुख होकर वासना के जाल में फँसते हैं, वहाँ परिवार और समाज दोनों टूटते हैं।"
पुतली विटपर्णी ने अंत में कहा, "राजा भोज! विक्रमादित्य जैसे न्यायप्रिय, वाचाल और सत्यनिष्ठ राजा विरले होते हैं। वह केवल तलवार नहीं, वाणी से भी शासन करते थे — तभी वह इस सिंहासन के योग्य थे। सोचो, क्या तुम भी ऐसे ही सत्य के लिए सब कुछ त्याग सकते हो?"
यह कहकर पुतली चुप हो गई। राजा भोज चुपचाप नीचे उतर आए, यह सोचते हुए कि क्या वह भी कभी विक्रमादित्य की तरह न्याय के लिए इतना दृढ़ हो पाएंगे।
