बहुत समय पहले की बात है, उज्जयिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य के सिंहासन के नीचे गुप्त रूप से 32 पुतलियाँ विराजमान थीं। जब राजा भोज उस सिंहासन पर बैठने चले, तब एक-एक कर पुतलियाँ प्रकट हुईं और विक्रमादित्य की न्यायप्रियता, साहस और करुणा की कहानियाँ सुनाने लगीं। चौथी पुतली, जिसका नाम था रत्नसेना, सामने आई और बोली—
“हे राजन भोज! तुम उस सिंहासन पर तभी बैठ सकते हो, जब तुम राजा विक्रमादित्य की तरह निडर, निष्पक्ष और त्यागी हो। सुनो एक कथा जो मैं स्वयं उस युग में देख चुकी हूँ।”
राजा और चोर की परीक्षा
एक बार उज्जयिनी में चोरी की घटनाएँ बढ़ गईं। नगरवासी भयभीत हो गए। राजा विक्रमादित्य ने तुरंत दरबार बुलाया और कहा, "जब तक मैं चोर को नहीं पकड़ता, मैं सिंहासन पर नहीं बैठूंगा।"
वह साधारण वस्त्र पहन कर रात्रि में नगर का भ्रमण करने लगे। एक रात, उन्होंने एक व्यक्ति को संदिग्ध रूप से चलते देखा। राजा ने उसका पीछा किया और उसे पकड़ लिया। पूछने पर वह व्यक्ति बोला, “मैं कोई साधारण चोर नहीं, मेरे पीछे एक दुखभरी कहानी है।”
चोर की करुण कथा
उस व्यक्ति का नाम आर्यक था। वह एक ब्राह्मण था, लेकिन अकाल और विपन्नता ने उसे मजबूर कर दिया कि वह चोरी करने निकले। उसकी पत्नी और बच्चे कई दिनों से भूखे थे। वह आँसू भरकर बोला, “मैं किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं चाहता था, केवल अपने बच्चों को बचाना चाहता था।”
राजा विक्रमादित्य यह सुनकर द्रवित हो उठे। उन्होंने आर्यक को दंडित नहीं किया। बल्कि उसे तत्काल अपने महल ले जाकर भोजन दिया, वस्त्र दिए और उसे नगर के पुस्तकालय में विद्वान की नौकरी दी।
राजा ने दरबार में घोषणा की —
"अगर भूख, बीमारी और विवशता किसी को अपराध की ओर ले जाए, तो दोष उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि शासन का होता है।"
न्याय की मिसाल
इसके बाद विक्रमादित्य ने नगर में “भोजन भंडार” स्थापित करवाया, जहाँ कोई भी भूखा व्यक्ति आकर निशुल्क भोजन कर सकता था। उन्होंने अपने खजाने से निर्धनों की सहायता के लिए अलग निधि बनाई। उनके इस निर्णय से पूरे नगर में शांति और संतोष लौट आया।
रत्नसेना पुतली ने कहा, “राजा विक्रमादित्य ने न केवल चोर को क्षमा किया, बल्कि उसकी स्थिति सुधार कर न्याय की नई परिभाषा गढ़ दी। वह केवल अपराध नहीं देखते थे, बल्कि अपराध के पीछे की पीड़ा को भी पहचानते थे।”
पुतली की चुनौती
राजा भोज शर्मिंदा हुए और उन्होंने कहा, “नहीं देवी, मैं अभी उस सिंहासन के योग्य नहीं। मुझे और न्याय सीखना है।”
और यह कहकर वे पीछे हट गए। रत्नसेना मुस्काई और अदृश्य हो गई।
