सिंहासन बत्तीसी – पाँचवी कथा: पुतली रत्नवती की कथा

Jitendra Kumar Sinha
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एक बार राजा विक्रमादित्य अपने दरबार में न्याय कर रहे थे, तभी उनके दरबार में एक गरीब ब्राह्मण आया और बोला, “महाराज, मेरे पास कुछ नहीं बचा है। मेरे खेत, मेरा घर, सब कुछ छिन गया है। मेरी पत्नी और बच्चे भूखे हैं।” यह सुनकर विक्रमादित्य ने अपने सिंहासन से उठकर अपने आभूषण उतारे और ब्राह्मण को दान में दे दिए।


जब राजा भोज ने सिंहासन बत्तीसी पर बैठने का प्रयास किया तो पाँचवीं पुतली, रत्नवती प्रकट हुई। उसने राजा भोज को रोकते हुए कहा, “हे राजन! क्या आपमें वह त्याग है जो विक्रमादित्य में था? यदि नहीं, तो आप इस सिंहासन पर बैठने के योग्य नहीं हैं। मैं आपको एक कथा सुनाती हूँ, सुनिए और विचार कीजिए।”


रत्नवती ने कथा प्रारंभ की—


राजा विक्रमादित्य एक बार वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे। चलते-चलते वह एक गाँव में पहुँचे जहाँ लोग एक धनी साहूकार की मृत्यु पर शोक मना रहे थे। पूछने पर ज्ञात हुआ कि साहूकार की मृत्यु के बाद उसका सारा धन राजा को चला गया क्योंकि उसके कोई वारिस नहीं थे। यह सुनते ही विक्रमादित्य को दुःख हुआ।


राजा ने उसी समय अपने सैनिकों को आदेश दिया कि साहूकार की संपत्ति को गाँव में एक धर्मशाला, कुआँ, विद्यालय और चिकित्सालय बनाने में लगा दिया जाए। जब लोगों ने पूछा कि यह सब क्यों कर रहे हैं, तो विक्रमादित्य ने कहा, “राजा का धर्म केवल कर लेना नहीं है, बल्कि प्रजा की सेवा करना है।”


कुछ समय बाद, उसी गाँव में एक युवती आई जो खुद को साहूकार की पुत्री बता रही थी। उसकी बात को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं था, पर उसने साहूकार के पुराने नौकरों और परिचितों से गवाही दिलवाई।


दरबार में यह मामला पहुँचा और सभी मंत्री बोले, “कोई प्रमाण नहीं है, इसे झूठा मानें।” पर विक्रमादित्य ने कहा, “यदि यह युवती झूठ बोल रही है, तो उसकी आत्मा उसे कभी माफ़ नहीं करेगी। लेकिन यदि वह सच बोल रही है, तो न्याय न मिलना पाप होगा।”


राजा ने मामले की जाँच करवाई और सत्य प्रमाणित होते ही संपत्ति का कुछ हिस्सा युवती को लौटा दिया और बाकी से गाँव के कार्य पूरे किए। युवती ने भी राजा को धन्यवाद देते हुए कहा, “आप जैसे राजा ही सच्चे न्यायप्रिय होते हैं।”


कथा सुनाकर पुतली रत्नवती ने राजा भोज से पूछा, “क्या आपने किसी की निस्वार्थ सहायता की है? क्या आपने अपना धन परोपकार में लगाया है?”


राजा भोज ने सिर झुकाकर कहा, “नहीं, रत्नवती। अभी मैं उस स्तर का नहीं हूँ।”


पुतली अंतर्धान हो गई, और भोज ने फिर से प्रयास स्थगित कर दिया।

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