राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक बूढ़ा ब्राह्मण आया, जिसकी आँखों में आँसू थे और हाथ काँप रहे थे। वह बोला, “महाराज, मेरी इकलौती गाय कल रात किसी ने चुरा ली। मैं उसी के दूध पर निर्भर था। अब न भोजन है, न जीवन का सहारा।” राजा ने तुरंत अपने सैनिकों को आदेश दिया कि चोरी करने वाले को खोजा जाए, लेकिन कई दिन बीतने के बाद भी चोर नहीं मिला।
तब विक्रमादित्य ने अपने सभी मंत्रियों और दरबारियों को बुलाया और कहा, “यदि हम एक वृद्ध ब्राह्मण की भी रक्षा नहीं कर सकते, तो हमारा राज्य किस काम का?” उसी समय उन्होंने घोषणा की कि यदि चोर नहीं मिला, तो राज्य को क्षमा नहीं है — और हर दरबारी को अपने निजी धन से एक गाय दान देनी होगी, जिससे राज्य इस अन्याय को साझा कर सके।
यह सुनकर कुछ दरबारियों में खलबली मच गई। कुछ ने तो मन ही मन कहा, “राजा का यह निर्णय अनुचित है, हम सब पर क्यों भार डाला जाए?” लेकिन किसी ने मुंह से विरोध नहीं किया।
राजा विक्रमादित्य ने अगले दिन दरबार में एक परीक्षा रखी। उन्होंने चार संदिग्धों को बुलवाया और सबके सामने यह घोषणा की, “राज्य में ऐसी घटना दोबारा न हो, इसके लिए मैं चाहता हूँ कि इन चारों में से कोई एक इस घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी ले और दंडस्वरूप तीन दिन तक राजमहल की सेवा करे।” तीनों ने तुरंत इनकार कर दिया, पर एक व्यक्ति सामने आया और बोला, “यदि इससे राज्य की प्रतिष्ठा बनी रहती है, तो मैं यह दंड सहर्ष स्वीकार करता हूँ, भले ही मैंने यह अपराध नहीं किया।”
राजा ने मुस्कराते हुए उसे गले से लगाया और कहा, “तुम ही असली दोषी हो! क्योंकि निर्दोष व्यक्ति कभी अपराध का झूठा दोष अपने सिर नहीं लेता, जब तक कि उसके मन में अपराधबोध न हो।” फिर विक्रमादित्य ने उसे उचित दंड दिया, लेकिन साथ ही उसके परिवार को सहायता भी दी — क्योंकि उसका अपराध भूख और लाचारी से उपजा था।
उस दिन से पूरे राज्य में यह बात फैल गई कि राजा विक्रमादित्य केवल कानून नहीं, करुणा और विवेक से भी राज्य चलाते हैं। उन्होंने सभी को यह सीख दी कि न्याय केवल कठोरता से नहीं, मानवता से भी किया जा सकता है।
चित्रलेखा बोली, “राजन, क्या आप इतने न्यायप्रिय हैं कि जहां जरूरत हो, वहां नर्मी और जहां अपराध हो, वहां दृढ़ता दिखा सकें? क्या आप अपने लोगों की पीड़ा को अपना समझते हैं?”
यह कहकर चित्रलेखा अदृश्य हो गई और सिंहासन फिर चमक उठा, पर विक्रमादित्य के गुणों की कसौटी और भी गहराने लगी।
