प्रशांत किशोर और पुष्पम प्रिया की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने बदली बिहार की राजनीति की दिशा

Jitendra Kumar Sinha
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2020 में बिहार की राजनीति में दो घटनाएं ऐसी हुईं जिन्होंने पारंपरिक सियासी ढांचे को हिलाकर रख दिया। पहली घटना थी प्रशांत किशोर की प्रेस कॉन्फ्रेंस, जिसमें उन्होंने जनता दल यूनाइटेड से इस्तीफा देने के बाद यह ऐलान किया कि वे न कोई पार्टी बना रहे हैं और न ही किसी के लिए प्रचार करेंगे, बल्कि “बात बिहार की” नाम से एक अभियान शुरू करेंगे। यह अभियान बाद में जन सुराज पार्टी के रूप में सामने आया, जिसने राज्य की राजनीति में धीरे-धीरे अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी। प्रशांत किशोर ने इसके तहत करीब 5000 किलोमीटर की पदयात्रा की और सैकड़ों गांवों में जाकर लोगों से सीधे संवाद किया। इस पूरी यात्रा में उन्होंने किसी दल या नेता को नहीं कोसा, बल्कि शिक्षा, रोजगार और बिहार की बदहाली जैसे मुद्दों पर आम लोगों से बात की।


दूसरी बड़ी घटना थी 8 मार्च 2020 को जब एक अज्ञात चेहरा, पुष्पम प्रिया चौधरी, अचानक बिहार के सभी प्रमुख अखबारों में विज्ञापन देकर खुद को मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित कर देती हैं। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ी हुई पुष्पम ने 'प्लूरल्स पार्टी' नामक एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई और खुद दो सीटों से विधानसभा चुनाव लड़ा। लेकिन वे दोनों जगहों से हार गईं और उनकी पार्टी कोई भी सीट नहीं जीत सकी। हालांकि यह राजनीतिक प्रयोग भले असफल रहा, लेकिन इससे एक संदेश गया कि बिहार की राजनीति में पारंपरिक चेहरों से अलग हटकर भी विकल्प सामने आ सकते हैं।


इन दोनों घटनाओं ने बिहार की राजनीति में एक नई विचारधारा और राजनीतिक शैली की शुरुआत की। जहां पुष्पम प्रिया ने एक झटके में नई पार्टी बना कर सुर्खियां बटोरीं, वहीं प्रशांत किशोर ने धीरे-धीरे जमीन से जुड़ने की रणनीति अपनाई। जन सुराज पार्टी ने बाद में हुए उपचुनावों में चार सीटों पर चुनाव लड़ा और वहां करीब 10 प्रतिशत वोट हासिल किए। यह छोटा कदम लग सकता है लेकिन इसने यह साफ कर दिया कि राज्य में एक तीसरी ताकत के लिए स्पेस मौजूद है।


आज जब 2025 के चुनाव नजदीक हैं, तो ये दोनों चेहरे एक बार फिर चर्चा में हैं। एक ओर जन सुराज पार्टी की रणनीति पूरी तरह जमीनी और जनसंवाद पर आधारित है, तो वहीं पुष्पम प्रिया अब तक मीडिया से दूरी बनाए हुए हैं लेकिन उनकी अगली राजनीतिक चाल को लेकर अटकलें तेज हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ये दोनों प्रयास एक सशक्त विकल्प बन पाएंगे या बिहार की राजनीति एक बार फिर पारंपरिक गठबंधनों के इर्द-गिर्द ही सिमट जाएगी।

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