विक्रमादित्य: समृद्धि का सूर्य और सांझ की छाया

Jitendra Kumar Sinha
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विक्रमादित्य। एक ऐसा नाम जो भारतीय इतिहास, लोककथाओं और सांस्कृतिक विरासत में सम्मान, बुद्धिमत्ता और न्याय का पर्याय बन चुका है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह न केवल एक महान सम्राट थे, बल्कि एक ऐसे राजा थे जिनकी न्यायप्रियता, दानशीलता और पराक्रम की गाथाएँ आज भी कथाओं में जीवित हैं। किंतु हर समृद्धि का एक क्षय होता है, और हर चढ़ाई के बाद एक ढलान। विक्रमादित्य की जीवनगाथा भी इसी शाश्वत सत्य का उदाहरण है — वैभव की ऊँचाइयों से लेकर पतन की गहराइयों तक की यात्रा।


यह लेख राजा विक्रमादित्य की उस संपूर्ण यात्रा पर प्रकाश डालता है — कैसे वे महान बने, कैसे उनका साम्राज्य स्वर्णिम युग में पहुँचा, और कैसे परिस्थितियाँ, समय और राजनीति के कठोर थपेड़े उन्हें अंततः "riches to rags" की स्थिति में ले आए।


बचपन और सिंहासन पर आरूढ़ होना

राजा विक्रमादित्य का जन्म उज्जयिनी (आज का उज्जैन) में हुआ था। वे 'गुप्त' वंश या 'परमार' वंश के माने जाते हैं, यद्यपि इतिहासकारों में इस पर मतभेद है। किंवदंतियाँ कहती हैं कि वे अत्यंत तेजस्वी, साहसी और बुद्धिमान बालक थे। उनके पिता राजा गंधर्वसेन के पश्चात् उन्होंने युवावस्था में ही राजगद्दी संभाल ली।


उन्होंने अपने शासन की शुरुआत न्याय, प्रशासनिक कुशलता और जनकल्याण के अद्वितीय उदाहरण स्थापित करके की। वे न केवल एक कुशल योद्धा थे, बल्कि एक दार्शनिक, कवि और विद्वानों के संरक्षक भी थे।


समृद्धि का स्वर्णकाल

विक्रमादित्य के काल को भारतीय इतिहास का एक स्वर्ण युग माना जाता है। उज्जयिनी उनके शासनकाल में भारत का सांस्कृतिक, शैक्षिक और व्यापारिक केंद्र बन गया। उनके दरबार में 'नवरत्न' जैसे महामानव उपस्थित थे — कालिदास, वराहमिहिर, धन्वंतरि, अमरसिंह जैसे महान विभूतियाँ। यह वह समय था जब विक्रमादित्य न केवल उत्तर भारत बल्कि सम्पूर्ण आर्यावर्त (हिंदुस्तान) में अपनी वीरता और न्याय के लिए प्रसिद्ध हो चुके थे।


उनकी सेनाएँ सीमाओं तक पहुँचीं। उन्होंने म्लेच्छ आक्रमणकारियों को पराजित किया, अन्य राज्यों को अपने अधीन किया और भारत की एकता के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।


उनका दरबार इतना समृद्ध था कि सोने, रत्नों और हाथियों की भरमार थी। उज्जैन की गलियों में चाँदी की ईंटें बिछाई जाती थीं। कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता था। विक्रमादित्य की दानशीलता की कहानियाँ आज भी लोककथाओं में जीवित हैं।


न्यायप्रियता और ‘सिंहासन बत्तीसी’

कई कहानियों में विक्रमादित्य को न्याय का साक्षात अवतार बताया गया है। 'सिंहासन बत्तीसी' की कहानियाँ इसी के उदाहरण हैं। यह सिंहासन 32 पुतलियों से युक्त था, जो न्याय के उच्च आदर्शों की प्रतीक थीं। कोई भी राजा उस पर तभी बैठ सकता था जब वह विक्रमादित्य के समान न्यायप्रिय हो।


यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि विक्रमादित्य की छवि एक ऐसे शासक की थी जो सत्य और धर्म से कभी विचलित नहीं हुआ।


पतन की शुरुआत : राजनीतिक छल और आंतरिक विद्रोह

किन्तु इतिहास गवाह है कि सत्ता चिरस्थायी नहीं होती। विक्रमादित्य की सत्ता को भी कई आंतरिक व बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके दरबार में ईर्ष्या, राजनीति और सत्ता के लिए षड्यंत्र पनपने लगे।


नवरत्नों में से कुछ का निधन हो गया, और कुछ दरबार से अलग हो गए। उनके सलाहकार मंडल में भी योग्य व्यक्तियों की कमी होने लगी। यह वही समय था जब पड़ोसी राज्यों ने उनकी दुर्बलता का लाभ उठाकर विद्रोह और आक्रमण प्रारंभ कर दिए।


विक्रमादित्य अब बूढ़े हो चुके थे। स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं दे रहा था, किंतु वे फिर भी अपनी प्रजा के लिए निरंतर कार्यरत रहे।


विदेशी आक्रमण और आर्थिक ह्रास

राज्य की सीमाएँ अब पहले जैसी सुरक्षित नहीं थीं। मध्य एशिया से आक्रमणकारी भारत की ओर देख रहे थे। उज्जैन की समृद्धि अब लुटेरों की आँखों में चुभने लगी थी। एक समय ऐसा आया जब शत्रु सेनाओं ने उज्जैन को घेर लिया।


विक्रमादित्य ने युद्ध किया, साहस दिखाया, किंतु संसाधनों की कमी, जनबल की थकान और राजनीति के खेल ने उन्हें कमजोर कर दिया। दरबार का वैभव अब ढह चुका था। महलों में वीरानी थी। स्वर्ण की ईंटें अब टूट चुकी थीं।


उज्जैन जो कभी संस्कृति का शिखर था, अब संघर्ष का केंद्र बन चुका था।


अंतिम समय : तपस्वी का जीवन

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में विक्रमादित्य ने सत्ता छोड़ दी। वे एक संन्यासी का जीवन जीने लगे। उन्होंने पुनः धर्म, योग और तप में मन लगाया। वे जंगलों में भटकते हुए कई तीर्थों पर गए।


कहा जाता है कि उन्होंने अपना अंतिम समय काशी के निकट एक गुफा में बिताया, जहाँ उन्होंने ध्यान और साधना करते हुए शरीर त्यागा।


विक्रमादित्य की विरासत

विक्रमादित्य भले ही अंततः वैभव खो बैठे, पर उनकी विरासत अमर रही। उनकी कहानियाँ 'बेताल पच्चीसी', 'सिंहासन बत्तीसी', और अनेक लोककथाओं में आज भी जीवित हैं। भारत में जब भी किसी आदर्श राजा का उल्लेख होता है, विक्रमादित्य का नाम सबसे पहले लिया जाता है।


उनकी न्यायप्रियता, विद्वानों के प्रति सम्मान, प्रजावत्सल स्वभाव और दानशीलता आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।


“Riches to Rags” — सबक क्या है?

विक्रमादित्य की कथा हमें यह सिखाती है कि वैभव, सत्ता और समृद्धि कभी भी स्थायी नहीं होते। जो स्थायी है वह है धर्म, न्याय और विरासत। उन्होंने जो संस्कृति, साहित्य और नैतिक मूल्यों की नींव डाली, वह आज भी भारत की आत्मा में रची-बसी है।


उनका पतन भी उनके उत्थान जितना ही मूल्यवान सबक देता है — जब अहंकार, राजनीति और असंयम प्रवेश करते हैं, तो चाहे कितनी भी बड़ी सत्ता क्यों न हो, वह बिखर जाती है।


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