ब्रह्मांड अनगिनत रहस्यों से भरा हुआ है। उनमें सबसे रहस्यमयी और शक्तिशाली तत्व है “ब्लैकहोल”। इन अदृश्य दानवों की कोई सीधी तस्वीर नहीं होती, लेकिन इनके गुरुत्वीय प्रभाव इतने जबरदस्त होते हैं कि यह समय, प्रकाश और पदार्थ, सब कुछ निगल जाता है। हाल ही में भारत की अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट ने एक बेहद शक्तिशाली ब्लैकहोल “GRS 1915+105” की गतिविधियों का गहराई से अध्ययन किया है और इसके जरिए ब्रह्मांड के कई रहस्यों पर से पर्दा हटाया है।
यह “ब्लैकहोल” पृथ्वी से लगभग 28,000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित है और इसका द्रव्यमान सूर्य से लगभग 12 गुणा अधिक है। यह “ब्लैकहोल” मिल्की वे (आकाशगंगा) के एक दूरस्थ कोने में स्थित है और पिछले 10 वर्षों से खगोलविदों की निगाहों में है। इसका नाम “GRS 1915+105” है और इसे वैज्ञानिक एक "ब्रह्मांडीय प्रयोगशाला" मानता हैं, जहां समय-समय पर ऐसे व्यवहार और घटनाएं देखी जाती हैं जो “ब्लैकहोल” की आंतरिक प्रक्रियाओं को समझने में मदद करता है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) द्वारा 2015 में प्रक्षिप्त किया गया “एस्ट्रोसैट” भारत का पहला स्पेस-ऑब्ज़वेटरी मिशन है जो एक्स-रे, पराबैंगनी, और दृश्य प्रकाश जैसे कई तरंगदैर्ध्यों में खगोलीय पिंडों का अध्ययन करता है। एस्ट्रोसैट ने “GRS 1915+105” के डेटा को लगातार रिकॉर्ड कर, इस “ब्लैकहोल” के चमकने और मंद पड़ने के अनोखे व्यवहार को समझने में वैज्ञानिकों की मदद की है।
एस्ट्रोसैट और अन्य सहयोगी संस्थानों के वैज्ञानिकों (IIT गुवाहाटी और हाइफा यूनिवर्सिटी, इज़राइल) ने पाया कि यह ब्लैकहोल कुछ अनोखी झिलमिलाहट प्रदर्शित करता है जो 70 बार दोहराई गई इसे वैज्ञानिक भाषा में Quasi-Periodic Oscillation (QPO) कहा जाता है। इन झिलमिलाहटों के दौरान “ब्लैकहोल” की एक्स-रे चमक तेजी से बढ़ती-घटती है। यह प्रक्रिया कुछ सौ सेकेंड तक चलती है और दो अलग-अलग अवस्थाओं में बदलती रहती है, उच्च चमक अवस्था और कम चमक अवस्था।
“ब्लैकहोल” के इन व्यवहारों का कारण है इसके चारों ओर स्थित अति-ऊर्जावान प्लाज्मा का बादल, जिसे वैज्ञानिक कॅरोना (Corona) कहते हैं। जब “ब्लैकहोल” उच्च चमक अवस्था में होता है, तो कॅरोना सघन, छोटा और अत्यधिक गर्म हो जाता है। जब यह मंद चमक अवस्था में जाता है, तो कॅरोना फैलता है और ठंडा पड़ जाता है। यही कॅरोना की सघनता और तापमान में बदलाव इस झिलमिलाहट के मुख्य कारण माने जा रहे हैं। इस खोज ने “ब्लैकहोल” की ऊर्जा प्रक्रियाओं को समझने में एक नया मार्ग खोल दिया है।
“GRS 1915+105” एक युग्म तारा प्रणाली का हिस्सा है। यानि, यह ब्लैकहोल एक साथी तारे के साथ जुड़ा है और दोनों एक-दूसरे की परिक्रमा करते हैं। यह साथी तारा धीरे-धीरे अपना पदार्थ खोता जा रहा है, जिसे “ब्लैकहोल” ग्रहण (accrete) करता है। जब यह पदार्थ “ब्लैकहोल” में गिरता है, तो वह अत्यधिक गर्म हो जाता है और एक्स-रे विकिरण उत्सर्जित करता है। यही एक्स-रे विकिरण एस्ट्रोसैट जैसे उपकरणों द्वारा दर्ज किया जाता है, और इन डेटा की व्याख्या करके वैज्ञानिक ब्लैकहोल के व्यवहार को समझता है।
ISRO ने कहा है कि “GRS 1915+105” केवल एक “ब्लैकहोल” नहीं, बल्कि एक ब्रह्मांडीय प्रयोगशाला है।
यह अपने तेज, दोहराए जाने वाले व्यवहारों से यह समझने में मदद करता है कि पदार्थ जब चरम गुरुत्वाकर्षण में प्रवेश करता है, तो वह कैसे व्यवहार करता है। इससे जुड़े निष्कर्ष न केवल ब्लैकहोल भौतिकी (Black Hole Physics) की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सापेक्षता के सिद्धांत, प्लाज्मा भौतिकी, और क्वांटम गुरुत्व जैसे क्षेत्रों के लिए भी प्रेरणादायक हैं।
इस शोध में न केवल भारत के वैज्ञानिक शामिल थे, बल्कि इजराइल के हाइफा विश्वविद्यालय जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान भी भागीदार थे। यह साझेदारी यह दर्शाता है कि भारत अंतरराष्ट्रीय खगोलविज्ञान समुदाय में अब केवल दर्शक नहीं, बल्कि सक्रिय खिलाड़ी बन चुका है। एस्ट्रोसैट के डेटा से निकले निष्कर्षों को अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में स्थान मिल रहा है, और यह वैश्विक विज्ञान समुदाय में भारत की वैज्ञानिक प्रतिष्ठा को नई ऊंचाई दे रहा है।
“ब्लैकहोल” भले ही अंधकारमय और भयावह लगता है, लेकिन इनकी मौजूदगी से जुड़े शोध हमारे अस्तित्व और ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कहानियों के करीब ले जाता है। यह न केवल ब्रह्मांड की ऊर्जा संरचना को समझने में मदद करता है, बल्कि यह समय और स्थान की चरम सीमाओं का प्रतिनिधित्व भी करता है। “GRS 1915+105” जैसे ब्लैकहोल सिखाता हैं कि अंतरिक्ष केवल शून्य नहीं है, बल्कि विकास, विनाश और पुनर्निर्माण का केंद्र भी है।
भारत की अंतरिक्ष वेधशाला एस्ट्रोसैट ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी विकास में भारत किसी से पीछे नहीं है। “GRS 1915+105” पर आधारित यह अध्ययन न केवल खगोल विज्ञान में योगदान है, बल्कि भारत के नवाचार, वैज्ञानिक जिज्ञासा और वैश्विक वैज्ञानिक मंच पर उसकी प्रासंगिकता का भी परिचायक है। भविष्य में, जैसे-जैसे अंतरिक्ष की और गहराइयों में प्रवेश करेंगे, ऐसे ही ब्लैकहोल, न्यूट्रॉन तारे, और अन्य ब्रह्मांडीय घटनाएं समझ को और अधिक समृद्ध करेंगी, और भारत इस यात्रा में एक अग्रणी देश के रूप में उभरेगा।
