आज के दौर में जब बाजारों में रासायनिक उत्पादों की भरमार है, ऐसे में प्राकृतिक और केमिकल-फ्री उत्पादों की मांग तेजी से बढ़ रही है। त्वचा से जुड़ी समस्याएं, एलर्जी, खुजली, एक्जिमा और दाग-धब्बों की वजह से लोग अब जैविक और आयुर्वेदिक विकल्पों की ओर झुकाव दिखा रहे हैं। इसी कड़ी में बांसवाड़ा जिला की आदिवासी महिलाओं ने एक अनोखी पहल की है। उन्होंने बकरी के दूध से साबुन बनाना शुरू किया है, जिसे लोगों ने त्वचा के लिए लाभकारी बताया है। यह पहल न केवल महिलाओं की आत्मनिर्भरता का प्रतीक है, बल्कि समाज को केमिकल-फ्री सौंदर्य उत्पादों की ओर भी प्रेरित कर रही है।
राजस्थान के बांसवाड़ा जिले की महिलाएं सदियों से पारंपरिक ज्ञान और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करती रही हैं। लेकिन अब ये महिलाएं, राजीविका (राजस्थान ग्रामीण आजीविका मिशन) जैसे सरकारी कार्यक्रमों की मदद से अपने पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक उद्यमिता से जोड़ रही हैं। डूंगरपुर और बांसवाड़ा जैसे जनजातीय बहुल जिलों में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह न केवल आर्थिक रूप से मजबूत हो रहा हैं, बल्कि वे जैविक उत्पादों का निर्माण कर स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रहा है।
विश्व माता वनधन केंद्र डडूका गढ़ी से जुड़ी रूप कांता डामोर और उनकी टीम ने बकरी के दूध से साबुन बनाना शुरू किया है। यह साबुन पूरी तरह प्राकृतिक है, जिसमें किसी प्रकार का हानिकारक रसायन नहीं डाला गया है।
त्वचा विशेषज्ञों के अनुसार, बकरी का दूध प्राचीन काल से औषधीय गुणों के लिए जाना जाता रहा है। इसमें मौजूद तत्व त्वचा के लिए अत्यंत लाभकारी होता है। विटामिन ए त्वचा की मरम्मत और कोमलता बनाए रखने में सहायक होता है। विटामिन डी त्वचा की कोशिकाओं के पुनर्निर्माण में मदद करता है। विटामिन ई एंटीऑक्सिडेंट के रूप में कार्य करता है और उम्र बढ़ने के लक्षणों को कम करता है। लैक्टिक एसिड त्वचा की गहराई से सफाई करता है और मृत कोशिकाओं को हटाता है। प्राकृतिक वसा त्वचा को नमी प्रदान करती है और उसे कोमल बनाती है। इन गुणों के कारण बकरी का दूध न केवल संवेदनशील त्वचा के लिए बल्कि सभी प्रकार की त्वचा के लिए एक उपयुक्त विकल्प माना जाता है।
रूप कांता डामोर बताती हैं कि साबुन बनाने की प्रक्रिया पूरी तरह स्वदेशी है, जिसमें पारंपरिक विधियों और प्राकृतिक सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में कोई सिंथेटिक रंग, कृत्रिम सुगंध या हानिकारक रसायन नहीं डाले जाते।
इसके मुख्य घटक हैं बकरी का दूध (उबाल कर और छान कर प्रयोग किया जाता है), गुलाबजल (प्राकृतिक सुगंध के लिए), बेसन (स्क्रबिंग एजेंट के रूप में), वैसलीन और नारियल तेल (मॉइस्चराइजर के रूप में), नीम और तुलसी का अर्क (एंटीसेप्टिक गुणों के लिए) और आवश्यक तेल (जैसे लेवेंडर, टी-ट्री या चंदन)। इन सभी सामग्रियों को निश्चित अनुपात में मिलाया जाता है, फिर उन्हें सांचे में डाल कर जमाया जाता है। दो से तीन दिनों में यह साबुन तैयार हो जाता है।
राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद (राजीविका) ने ग्रामीण महिलाओं को संगठित कर उन्हें स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराए हैं। बकरी दूध साबुन परियोजना इसी का एक उदाहरण है। महिलाएं अब अपने उत्पादों को मेलों, हाट बाजारों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर बेच रही हैं।इससे महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं, पारंपरिक ज्ञान को आय का साधन बनाया गया है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बल मिला है, महिलाओं में आत्मविश्वास और नेतृत्व कौशल का विकास हुआ है।
त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. हरीश शर्मा बताते हैं कि बकरी के दूध में मौजूद लैक्टिक एसिड त्वचा को गहराई से साफ करता है और रोमछिद्रों को खोलता है। इसके अलावा, यह त्वचा को मॉइस्चराइज करता है और उसे तरोताजा बनाए रखता है। रसायनयुक्त साबुन जहां त्वचा को रूखा और बेजान बना देता है, वहीं बकरी के दूध से बने साबुन त्वचा को पोषण देता है। यह साबुन बच्चों की त्वचा के लिए, एक्जिमा, सोरायसिस जैसे रोगों से ग्रसित लोगों के लिए, मुंहासों की समस्या से जूझ रहे युवाओं के लिए और अत्यधिक शुष्क या अत्यधिक तैलीय त्वचा के लिए विशेष रूप से लाभकारी है।
राजीविका के मेले में पहुंचे ग्राहक बताते हैं कि बकरी के दूध से बने इस साबुन का उपयोग करने के बाद उन्हें त्वचा में फर्क महसूस हुआ है। रेखा शर्मा, जो पहले एलर्जी और खुजली की समस्या से परेशान थीं, बताती हैं कि बाजार के साबुनों से उन्हें राहत नहीं मिली है, लेकिन इस साबुन ने असर दिखाया। “सुगंध हल्की और प्राकृतिक है, जो मन को भाती है।” “साबुन लगाने के बाद त्वचा मुलायम और ताजगी से भरी लगती है।” “यह साबुन बाजार के महंगे ऑर्गेनिक साबुनों से कम कीमत में ज्यादा असरदार है।”
बकरी के दूध से बना यह साबुन न केवल त्वचा के लिए लाभकारी है बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी हानिरहित है। इसमें प्लास्टिक पैकेजिंग का प्रयोग नहीं किया जाता। इसे बायोडिग्रेडेबल सामग्री में पैक कर बेचा जाता है। इसका निर्माण स्थानीय स्तर पर होता है जिससे कार्बन फुटप्रिंट भी कम होता है।
पहले जो महिलाएं घरेलू कार्यों तक सीमित थीं, वे आज एक सफल व्यवसाय चला रही हैं। रूप कांता डामोर और उनकी टीम हर महीने 300 से 500 साबुन बनाती हैं और ₹50 से ₹80 की कीमत में बेचती हैं। वे अब बकरी पालन को भी अपने व्यवसाय से जोड़ चुकी हैं।
रूप कांता पहले एक गृहिणी थीं। राजीविका के प्रशिक्षण से जुड़ने के बाद उन्होंने बकरी पालन शुरू किया। फिर उन्होंने बकरी के दूध से साबुन बनाना शुरू किया और आज वे अपने गांव की कई महिलाओं को रोजगार दे रही हैं।
ग्रामीण हाटों से लेकर शहरी बुटीक तक, इस साबुन की मांग दिन-ब-दिन बढ़ रही है। कई स्टार्टअप और ऑर्गेनिक प्रोडक्ट कंपनियां अब इन महिलाओं से संपर्क कर उनके उत्पाद को बड़े स्तर पर ले जाने में रुचि दिखा रही हैं। इनकी ऑनलाइन बिक्री पोर्टल की शुरुआत, अन्य उत्पादों जैसे लोशन, बॉडी बटर का निर्माण, प्राकृतिक रंग और सुगंध वाले नए संस्करण भविष्य की योजना है।
बांसवाड़ा की आदिवासी महिलाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि सीमित संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के बल पर भी एक बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। बकरी के दूध से बने साबुन ने न केवल उनकी आजीविका का साधन मजबूत किया है, बल्कि समाज को भी रासायनिक उत्पादों से दूर कर प्रकृति की ओर लौटने की प्रेरणा दी है। यह पहल "वोकल फॉर लोकल" और "आत्मनिर्भर भारत" की भावना को भी मजबूती देती है। ऐसी परियोजनाएं आने वाले समय में ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने में अहम भूमिका निभा सकती हैं।
