राजस्थान की तपती रेत में जैसलमेर एक ऐसा नगर है जो केवल इतिहास नहीं, बल्कि अध्यात्म, संस्कृति और स्थापत्य कला का दिव्य संगम भी है। यहाँ स्थित 'सोनार किला' या 'स्वर्ण दुर्ग', न केवल विश्व के जीवित दुर्गों में प्रमुख है, बल्कि इसके भीतर स्थित जैन मंदिरों की श्रृंखला श्रद्धालुओं के लिए आस्था का तीर्थ और पर्यटकों के लिए कला का अनूठा संग्रहालय बन चुका है।
इन मंदिरों की बेमिसाल नक्काशी, अद्वितीय स्थापत्य, और धार्मिक महत्व विश्व भर के श्रद्धालुओं को खींच लाता है। सोनार दुर्ग में स्थापित आठ तीर्थंकरों को समर्पित इन जिनालयों में रोज 6666 जिन प्रतिमाओं की पूजा होती है, जो जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा और समर्पण का जीवंत प्रमाण है।
सोनार दुर्ग, जिसे जैसलमेर किला भी कहते हैं, 1156 ई. में राजा रावल जैसल द्वारा बनवाया गया था। यह किला पीली बलुआ पत्थर से बना है, जो सूरज की किरणों में सोने जैसा चमकता है, इसलिए इसे 'सोनार किला' कहा जाता है।
किले के भीतर एक स्वतंत्र शहर बसता है, जिसमें आवास, बाजार, हवेलियाँ और जैन मंदिर शामिल हैं। जैसलमेर दुर्ग की विशेषता यह है कि यह विश्व के सबसे पुराने जीवित किलों में गिना जाता है और आज भी यहाँ हजारों लोग निवास करते हैं।
जैसलमेर किला के भीतर स्थित जैन मंदिर 8 प्रमुख तीर्थंकरों को समर्पित हैं, चिंतामणि पार्श्वनाथ (23वें तीर्थंकर), आदिनाथ (पहले तीर्थंकर), महावीर स्वामी (24वें तीर्थंकर), चंद्रप्रभु, कुंथुनाथ, शांतिनाथ, संभवनाथ और सीमंधर स्वामी। इन मंदिरों में सबसे प्रमुख हैं चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर और आदिनाथ मंदिर। हर मंदिर में सौंदर्य, शांति और भक्ति का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
इस मंदिर में प्रतिष्ठित मूर्ति 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान की है, जिसे विक्रम संवत 1473 में प्रतिष्ठित किया गया था। ऐसा माना जाता है कि यह मूर्ति लौद्रवा से लाई गई थी। यह प्रतिमा बालू मिट्टी से बनी हुई है, जिस पर मोलियों का लेप किया गया है।
यह मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं है बल्कि धार्मिक इतिहास और कला का जीवित स्वरूप है। श्रद्धालु इस प्रतिमा को देखने के लिए दूर-दराज से आते हैं।
सोनार दुर्ग के इन जिनालयों में रोजाना 6666 जैन प्रतिमाओं की पूजा होती है। यह संख्या केवल परंपरा नहीं, बल्कि उस गहन अनुशासन और समर्पण का प्रतीक है जो जैन समाज अपने धर्म के प्रति रखता है। हर प्रतिमा की अलग-अलग पूजा विधि, आरती, स्तुति, और भक्ति की गहराई पूरे परिसर को धार्मिक ऊर्जा से भर देता है।
इन मंदिरों का निर्माण मुख्यतः 14वीं से 18वीं सदी के बीच हुआ है, जिसमें सोमपुरा शिल्पकारों की प्रमुख भूमिका रही है। सोमपुरा शिल्प शैली जैन, हिन्दू और बौद्ध मंदिर निर्माण में समर्पित रही है, जिसकी पहचान है बारीक नक्काशीदार स्तंभ, भावपूर्ण मूर्तियाँ, तोरण द्वार (झरोखा नुमा कलात्मक प्रवेशद्वार), नृत्य, वाद्य और प्रकृति को दर्शाती मूर्तिकला, मंदिरों की दीवारों पर हाथी, सिंह, फूल-पत्तियाँ, नृत्यांगनाएँ जैसे रूपों को बेहद बारीकी से उकेरा गया है।
संभवनाथ मंदिर के अंतर्गत स्थित 'ज्ञान भंडार' एक विशेष स्थान है। इसमें ताड़पत्रों पर लिखे हजारों ग्रंथ आज भी संरक्षित हैं। इनमें धार्मिक ग्रंथ, जैन दर्शन, ज्योतिष, औषधि विज्ञान और तांत्रिक शास्त्र सम्मिलित हैं।
यह भंडार दर्शाता है कि जैन समाज केवल भक्ति तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि ज्ञान और विज्ञान में भी उसकी गहरी आस्था रही है।
इन मंदिरों की दीवारें और स्तंभ इतनी बारीकी से तराशे गए हैं कि हर कोना किसी कथा को बयां करता है। उदाहरणस्वरूप तोरण द्वारों पर नृत्य करती देवियाँ, वाद्य यंत्रों को बजाते गण, सिंह और हाथियों की युद्ध शैली और झरनों, कछुओं, कमलों की आकृतियाँ। यह सब दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता हैं। यह केवल पत्थर नहीं, बल्कि धर्म, कला और कल्पना का जीवन्त मिश्रण हैं।
सिर्फ सोनार दुर्ग ही नहीं, बल्कि जैसलमेर के आसपास स्थित लौद्रवा, अमरसागर, देवीकोट, ब्रह्मसर और पोकरण में भी जैन मंदिर हैं, जो स्थापत्य और आध्यात्मिक दृष्टि से बेहद समृद्ध हैं। लौद्रवा- जैसलमेर से 15 किमी दूर, पार्श्वनाथ जी का ऐतिहासिक तीर्थ। अमरसागर- जलाशय के किनारे स्थित मंदिर, जिसकी छवियाँ जल में प्रतिबिंबित होती हैं। देवीकोट और ब्रह्मसर- कम प्रसिद्ध लेकिन स्थापत्य की दृष्टि से अत्यंत प्रभावशाली। पोकरण- किले के भीतर स्थित जैन मंदिर शांति का प्रतीक हैं।
जैन मंदिर जैसलमेर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक हैं। विदेशी पर्यटक यहाँ आकर भारतीय धर्म और स्थापत्य से परिचित होते हैं। यहाँ के गाइड, लेख, और स्थानीय पुजारी इस विरासत को जीवंत रखने में योगदान देते हैं। राज्य सरकार और पुरातत्व विभाग मिलकर मंदिरों के संरक्षण का प्रयास कर रहे हैं ताकि यह धरोहर भावी पीढ़ियों तक अक्षुण्ण रहे।
हर वर्ष महावीर जयंती, पार्श्वनाथ जयंती, और संवत्सरी पर्व के अवसर पर यहाँ विशेष धार्मिक आयोजन, शोभायात्राएँ, प्रवचन, और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। स्थानीय जैन समाज और बाहर से आए अनुयायी मिलकर इस पर्व को धार्मिक उत्सव में बदल देते हैं।
इन मंदिरों की विरासत केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि लोक-संस्कृति, स्थापत्य कला, समाजशास्त्र, और इतिहास की दृष्टि से भी अनमोल है। यह मंदिर यह सिखाता हैं कि कला और भक्ति का संयोग कैसे सभ्यता को अमर बना सकता है। यहाँ की मिट्टी, पत्थर और हवा में जैन धर्म के अहिंसा, संयम, और सदाचार की महक है।
जैसलमेर के सोनार दुर्ग के जैन मंदिर केवल एक तीर्थ या पर्यटन स्थल नहीं हैं, बल्कि यह इतिहास की, भक्ति की, और संस्कृति की पहचान हैं। यह उस शिल्प, समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक हैं जिसने रेगिस्तान में भी आध्यात्मिक हरियाली उगाई है।
