भारत इस समय एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ घरेलू और वैश्विक दोनों ही मोर्चों पर एक साथ दबाव बन रहा है। बाहर से डोनाल्ड ट्रंप, यूरोपीय यूनियन और पश्चिमी शक्तियाँ आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक घेराबंदी की कोशिश में हैं, तो अंदर से चुनावी धांधली के आरोप, प्रदर्शन और हिंसा का माहौल बनाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हालिया बयान "मुझे पता है कि मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी" इस पूरे घटनाक्रम की गंभीरता को दर्शाता है। मोदी के शब्द यूं ही नहीं होते, उनका हर वाक्य एक संकेत देता है, और इस बार संकेत साफ है, देश पर एक बड़े पैमाने का राजनीतिक-आर्थिक हमला शुरू हो चुका है।
कई विश्लेषक मानते हैं कि यह तनाव सिर्फ रूस से भारत की कच्चे तेल की खरीद को लेकर है, लेकिन ट्रंप के हालिया बयान ने इस भ्रम को तोड़ दिया है। जब उनसे पूछा गया कि अगर रूस युद्धबंदी कर दे तो क्या भारत पर लगाए गए टैरिफ हटेंगे, उनका जवाब था "अभी तो हम टैरिफ और बढ़ाने जा रहे हैं"। यह बताता है कि मामला सिर्फ रूस नहीं, बल्कि अमेरिका की लंबे समय से चली आ रही कोशिशों का हिस्सा है, भारत के कृषि क्षेत्र, ई-कॉमर्स और अन्य रणनीतिक क्षेत्रों को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोलना।
ट्रंप सिर्फ आयात शुल्क बढ़ाने तक सीमित नहीं रहेंगे। उनकी रणनीति में यह बिंदु प्रमुख होंगे, भारत की कृषि नीति पर दबाव- WTO और FTA के नाम पर खाद्य सुरक्षा और MSP को खत्म करने की कोशिश। पाकिस्तान को आर्थिक-सैन्य मदद- भारत के लिए पश्चिमी मोर्चे पर अशांति पैदा करना। चीन के साथ समीकरण- भारत को व्यापारिक और रणनीतिक रूप से अलग-थलग करना। भारतीय राजनीति में अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप- NGOs, मीडिया और कुछ विपक्षी ताकतों के जरिये अशांति का माहौल बनाना।
EU ने पिछले कुछ वर्षों में ‘कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म’ (CBAM) लागू किया है, जिसके तहत भारत जैसे विकासशील देशों से आने वाले स्टील, सीमेंट, एल्युमिनियम और रसायनों पर अतिरिक्त शुल्क लगाया जाएगा। इसे पर्यावरण संरक्षण के नाम पर पेश किया जा रहा है, लेकिन असल में यह प्रतिस्पर्धा को खत्म करने का तरीका है।
यूरोपीय संसद और विभिन्न NGOs की रिपोर्ट्स में भारत के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन, अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक जैसे आरोप लगातार लगाया जा रहा है। इन रिपोर्ट्स का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की छवि को कमजोर करने और व्यापार वार्ताओं में दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है।
बांग्लादेश में शेख हसीना के खिलाफ तख्तापलट से 5-7 महीने पहले वहाँ भी यही माहौल बनाया गया था, चुनावी धांधली के आरोप, विपक्षी प्रदर्शन, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में नकारात्मक कवरेज। भारत में भी यही पैटर्न अपनाया जा रहा है, सोशल मीडिया पर EVM हैकिंग और चुनावी धोखाधड़ी के ट्रेंड। विपक्षी दलों के समन्वित प्रदर्शन। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल।
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, कई जगह विरोध प्रदर्शन हिंसक हो सकते हैं। इसके पीछे विदेशी फंडिंग और अंदरूनी असंतोष का मिश्रण होगा। लक्ष्य होगा, भारत में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना, ताकि अंतरराष्ट्रीय दबाव को बढ़ाया जा सके।
नरेन्द्र मोदी ने जो कहा "मुझे पता है कि मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी" यह दर्शाता है कि उन्हें इस वैश्विक और घरेलू खेल का अंदाजा है। पिछले तीन दशकों में मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक, कई तरह के दबाव और डबल स्टैंडर्ड का सामना किया है। यह उनका पहला संकट नहीं है, लेकिन शायद सबसे व्यापक और बहुस्तरीय संकट जरूर है।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसी महीने भारत आ रहे हैं। यह संकेत है कि भारत-रूस ऊर्जा, रक्षा और कूटनीतिक साझेदारी को और मजबूत करेंगे। रूस भारत के लिए न केवल तेल का बड़ा आपूर्तिकर्ता है, बल्कि सैन्य तकनीक और भू-राजनीतिक संतुलन का अहम स्तंभ भी है।
मोदी का चीन दौरा भी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि भले ही भारत-चीन सीमा विवाद हो, लेकिन आर्थिक और बहुपक्षीय मंचों (BRICS+, SCO) पर सहयोग दोनों के हित में है। अमेरिका और यूरोप के दबाव का संतुलन बनाने में यह अहम भूमिका निभा सकता है।
इजराइल की तकनीकी, रक्षा और कृषि तकनीक में विशेषज्ञता भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यह यात्रा पश्चिम एशिया में भारत के रणनीतिक गठबंधनों को और मजबूत करेगी।
भारत की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है। अगर विदेशी ताकतें राजनीतिक अस्थिरता फैलाने की कोशिश करती हैं, तो एकजुट जनमत और राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र इस खेल को नाकाम कर सकते हैं। साथ ही, आत्मनिर्भर भारत की नीति विदेशी दबाव को कम करने का साधन बन सकता है, चाहे वह रक्षा उत्पादन हो, कृषि सुधार हो, या ऊर्जा आपूर्ति का विविधीकरण।
भारत के सामने आने वाले महीनों में तीन बड़े खतरा हो सकता है। आर्थिक दबाव- टैरिफ, व्यापार प्रतिबंध और विदेशी निवेश में रुकावट। राजनीतिक अस्थिरता- चुनावी धांधली के आरोप, विपक्षी प्रदर्शन और हिंसा। अंतरराष्ट्रीय छवि पर हमला- मानवाधिकार और लोकतंत्र पर सवाल। लेकिन साथ ही तीन बड़े अवसर भी हैं, वैश्विक गठबंधन को मजबूत करना- रूस, चीन, इजराइल और अन्य साझेदार देशों के साथ। घरेलू मोर्चे पर एकता बनाए रखना- विपक्षी हमलों के बावजूद स्थिर शासन। आत्मनिर्भरता को तेजी से बढ़ाना ताकि विदेशी दबाव का असर सीमित रहे।
भारत एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहा है, जहाँ हर मोर्चे पर सावधानी, रणनीति और धैर्य की जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बाहरी वार है, तो अंदरूनी असंतोष का शोर भी। लेकिन अगर इतिहास कुछ सिखाता है, तो वह यह कि जब-जब भारत पर चौतरफा हमला हुआ है, तब-तब उसकी एकता और नेतृत्व की क्षमता ने उसे और मजबूत बनाया है। नरेन्द्र मोदी बाहर का मोर्चा संभालेंगे, तो अंदर का मोर्चा भारतवासी।
