सीमांचल - मुस्लिम वोटरों की निर्णायक भूमिका

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय और साम्प्रदायिक समीकरणों पर आधारित रही है। लेकिन जब सीमांचल की बात होती है, तो यहां का परिदृश्य पूरे राज्य से कुछ अलग दिखाई देता है। अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया जिलों को मिलाकर बने इस भूभाग में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक है। यही कारण है कि सीमांचल को अक्सर बिहार का "मुस्लिम बेल्ट" कहा जाता है। चुनावी मौसम आते ही सीमांचल सुर्खियों में छा जाता है, क्योंकि यहां की जनता का फैसला सीधे-सीधे पटना के सत्ता समीकरणों को प्रभावित करता है।

यहां की 24 विधानसभा सीटों में से आधी से अधिक पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। यही वजह है कि हर राजनीतिक दल की रणनीति मुस्लिम वोटरों को साधने पर केंद्रित रहती है। सवाल यह उठता है कि क्या सीमांचल का वोटर विकास और रोजगार जैसे मुद्दों को तरजीह देगा या पहचान आधारित राजनीति यानि जाति और धर्म को? यही पहलू इस क्षेत्र की राजनीति को सबसे दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण बनाता है।

सीमांचल का इलाका बिहार के उत्तर-पूर्वी हिस्से में आता है। यह क्षेत्र न सिर्फ नेपाल और बंगाल की सीमा से जुड़ा है, बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई विविधता से भी समृद्ध है। मुख्य जिले हैं अररिया, किशनगंज, कटिहार और पूर्णिया। यहाँ की भाषाई विविधता है हिन्दी, उर्दू, मैथिली, बंगला, और संथाली आर्थिक स्थिति है कृषि-प्रधान क्षेत्र, लेकिन बार-बार बाढ़ और अवसंरचना की कमी से विकास बाधित होता रहता है। यहां मुस्लिम आबादी औसतन 40-45 प्रतिशत है, जबकि कुछ विधानसभा क्षेत्रों में यह 60-65 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। सीमांचल की राजनीति की धुरी मुस्लिम समाज है, लेकिन यादव, कुशवाहा, अनुसूचित जाति, राजपूत और बनिया जैसी जातियां भी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।

बिहार की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक का महत्व हमेशा रहा है, लेकिन सीमांचल की स्थिति बिल्कुल अलग है। यहां मुस्लिम मतदाता केवल "सहायक" नहीं बल्कि "निर्णायक" भूमिका में रहते हैं। 24 विधानसभा सीटों में से लगभग 12 सीटों पर मुस्लिम वोटर 50% से ज्यादा हैं। बाकी 12 सीटों पर भी मुस्लिम वोटर 25-40% के बीच निर्णायक स्थिति में है। सीमांचल की 4 लोकसभा सीटों (किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया) में भी मुस्लिम वोटरों का बड़ा असर रहता है। यहां की चुनावी रणनीति बनाते समय हर प्रत्याशी को मुस्लिम समाज का रुख भांपना पड़ता है। अगर यह वोट बैंक एकजुट हो जाए, तो जीत लगभग तय मानी जाती है।

सीमांचल भाजपा और एनडीए के लिए हमेशा चुनौतीपूर्ण इलाका रहा है। कारण साफ है, मुस्लिम समाज भाजपा को संदेह की नजर से देखता है और पार्टी यहां मजबूत पकड़ नहीं बना पाई है।

भाजपा की रणनीति रही है मुस्लिम वोटों की गोलबंदी को तोड़ने के लिए हमेशा हिन्दू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की "विकास की राजनीति" को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों तक पहुंचाने का प्रयास। बेरोजगारी, शिक्षा, सड़क, बिजली-पानी जैसी बुनियादी समस्याओं को हिंदुत्व से जोड़कर प्रचारित करना। भाजपा ने हाल के वर्षों में पसमांदा मुस्लिमों को अपने पाले में लाने की कोशिश की है।

मुस्लिम वोट बैंक भाजपा के खिलाफ एकजुट हो जाता है। सीमांचल में भाजपा की संगठनात्मक मजबूती कमजोर है। जमीनी स्तर पर एनडीए के स्थानीय नेता प्रभावशाली नहीं है।

महागठबंधन की असली ताकत सीमांचल में मुस्लिम और यादव (MY) समीकरण है। लालू प्रसाद की राजनीति का आधार ही MY समीकरण रहा है। मुस्लिम समाज भाजपा से असुरक्षित महसूस करता है, इसलिए उनका झुकाव स्वाभाविक रूप से राजद की ओर होता है। राजद का उद्देश्य होता है सामाजिक न्याय और पिछड़ों की राजनीति को जोड़कर मुस्लिमों का समर्थन हासिल करना।

सीमांचल में कांग्रेस का पारंपरिक आधार मुस्लिम समाज रहा है। किशनगंज जैसी सीट से कांग्रेस की पहचान बनी है। हालांकि कांग्रेस अब कमजोर हुई है, लेकिन मुस्लिम वोटरों के एक वर्ग पर आज भी पकड़ बनाए हुए है।

एआईएमआईएम (ओवैसी की पार्टी) ने सीमांचल में अपनी जमीन तलाशने की कोशिश की है। कुछ जगहों पर छोटे दल और स्थानीय नेता मुस्लिम वोटों को काटने का प्रयास करते हैं।

मुस्लिम समाज भी पूरी तरह एकरूप नहीं है। पसमांदा (पिछड़े और दलित मुस्लिम) और अशराफ (उच्चवर्गीय मुस्लिम) के बीच विभाजन का असर सीमांचल की राजनीति पर दिख रहा है। भाजपा और अन्य दल इस अंतर को भुनाने की कोशिश कर रहा है।

युवा मतदाता केवल धर्म या जाति पर वोट नहीं करता है। वह रोजगार, शिक्षा और विकास की बात करता है। यदि यह ट्रेंड बढ़ा, तो राजनीति का चेहरा बदल सकता है।

सीमांचल से बड़ी संख्या में लोग खाड़ी देशों और महानगरों में काम करने जाते हैं। ये प्रवासी मजदूर जब चुनाव के समय लौटते हैं, तो स्थानीय राजनीति में नए विमर्श जोड़ते हैं।

सीमांचल का चुनावी रण हमेशा खास होता है। यहां प्रत्याशी केवल अपनी जाति या धर्म पर भरोसा नहीं कर सकते। उन्हें गठबंधन की राजनीति और जमीनी समीकरण दोनों को ध्यान में रखना पड़ता है। अगर मुस्लिम वोट एकजुट हो जाय तो महागठबंधन की जीत लगभग तय होगी। अगर मुस्लिम वोट बंट जाएं तो भाजपा और अन्य दलों को मौका मिल जाएगा। अगर विकास मुद्दा बने तब समीकरण पूरी तरह बदल सकता है।

1970-80 के दशक में कांग्रेस का दबदबा था। 1990 के दशक में लालू प्रसाद और राजद का MY समीकरण प्रभावी था। 2005 के बाद से नीतीश कुमार की पकड़ मजबूत हुई, लेकिन सीमांचल में मुस्लिम वोट राजद-कांग्रेस की तरफ झुके रहे। 2014 लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी लहर के बावजूद किशनगंज में कांग्रेस जीती। 2020 विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम को कुछ सीटें मिली, लेकिन बाद में वह कमजोर हो गई।

सीमांचल की 24 सीटों का सीधा असर बिहार की सत्ता पर पड़ता है। यदि कोई दल यहां अच्छा प्रदर्शन कर ले, तो उसकी सत्ता में वापसी लगभग तय हो जाती है। यही कारण है कि हर चुनाव से पहले सीमांचल में बड़े-बड़े नेताओं की रैलियां और वादे देखने को मिलते हैं।

सीमांचल की राजनीति जातीय और धार्मिक समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। मुस्लिम वोटर यहां के सबसे बड़े निर्णायक हैं। भाजपा और एनडीए के लिए यह इलाका चुनौती है, जबकि महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत यही क्षेत्र है।

सवाल यही है कि क्या सीमांचल का वोटर आने वाले चुनावों में भी केवल पहचान की राजनीति करेगा, या फिर विकास और रोजगार जैसे मुद्दों को प्राथमिकता देगा? अगर सीमांचल विकास के एजेंडे पर मतदान करना शुरू कर दे, तो बिहार की राजनीति की दिशा बदल सकती है।



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