शिव साधना और प्रकृति श्रृंगार का महीना होता है - “सावन”

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

सावन यानि श्रावण मास, भारतीय जीवन, कृषि परंपरा, अध्यात्म और लोकसंस्कृति का ऐसा संगम है, जो न केवल धरती को हरियाली से भर देता है, बल्कि मनुष्य के अंतःकरण को भी शिवत्व से सराबोर कर देता है। यह सिर्फ मौसम नहीं है, बल्कि अनुभूति है, एक दिव्य अनुभूति जो जन-जन को वैराग्य, प्रेम, त्याग और तप में रंग देती है। गगन से गिरती बूंदें जैसे सीधे हृदय में शिव की कृपा बरसाती हैं।

सावन के साथ ही प्रकृति भी जैसे पूजा की मुद्रा में आ जाता है हर पेड़, हर फूल, हर नदी, हर तालाब, सब शिव को अर्पित होने लगता है। सावन केवल ऋतु नहीं है, वह मनःस्थिति है जिसमें लोक भी लय में आ जाता है और जीवन शिवमय हो जाता है।

सावन को भगवान शिव का प्रिय महीना माना गया है। शास्त्रों और पुराणों में इसकी विस्तृत व्याख्या मिलती है। एक प्रमुख कथा के अनुसार, जब सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह कर लिया, तब शिव ने संसार से विरक्त होकर समाधि लगा ली थी। सती ने ही पुनः पार्वती के रूप में जन्म लिया और कठोर तप कर शिव को पुनः पति रूप में प्राप्त किया। यह तप सावन के महीने में ही आरंभ हुआ था, इसलिए यह महीना पार्वती-शिव पुनर्मिलन का प्रतीक भी बन गया है।

एक अन्य कथा अनुसार, समुद्र मंथन के समय निकले हलाहल विष को जब देवता और दानव कोई ग्रहण करने को तैयार नहीं हुए, तब भगवान शिव ने उसे पी लिया। यह भी श्रावण मास में ही हुआ था। इस विष की उष्णता को कम करने के लिए देवताओं ने शिव पर गंगाजल अर्पित किया, जिससे शिव प्रसन्न हुए और तभी से श्रावण में जलाभिषेक का महत्व प्रारंभ हुआ।

सावन आते ही पूरा उत्तर भारत में ‘बोल बम’ की गूंज सुनाई देने लगता है। हरिद्वार, देवघर, उज्जैन, काशी, गया, सुल्तानगंज से लेकर नेपाल के पवित्र स्थलों तक लाखों शिवभक्त कांवर लेकर पवित्र नदियों से जल भरकर अपने निकटवर्ती शिवालयों में अर्पित करने निकल पड़ते हैं। पैदल चलना, नंगे पांव यात्रा करना, उपवास रखना, यह सब केवल तपस्या नहीं है बल्कि प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है।

कांवड़ यात्रा केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं है, यह जीवन में अनुशासन, संयम और निष्ठा की मिसाल है। भक्तगण कीचड़, कंकड़, तपती सड़कें और बारिश की परवाह किए बिना ‘हर हर महादेव’ और ‘बोल बम’ की गूंज के साथ चलते रहते हैं। यह भक्ति की वह यात्रा है जिसमें शरीर थकता है लेकिन आत्मा नाच उठती है।

सावन के महीने को स्त्रियों के लिए विशेष माना गया है। सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं, हरियाली तीज मनाती हैं, झूले पर झूलती हैं, हाथों में मेहंदी सजाती हैं। लेकिन यह साज-सज्जा केवल बाह्य नहीं, यह भीतर की तपस्या का प्रतीक भी है।



देवी पार्वती ने भी अपने पति शिव को पाने के लिए सावन के महीने में कठोर तप किया था। उन्होंने अन्न और यहां तक कि पत्तों का भी त्याग कर दिया, इसलिए उन्हें ‘अपर्णा’ कहा गया। उनकी इस अपार तपस्या ने शिव को बाध्य कर दिया कि वे योगनिद्रा से जागें और देवी के समर्पण को स्वीकार करें। यही कारण है कि यह महीना स्त्री शक्ति की साधना, धैर्य, प्रेम और तप की प्रतीक बन गया है।

पुराणों के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान जब देवताओं और दानवों ने मिलकर अमृत प्राप्ति हेतु समुद्र को मथा, तब सबसे पहले हलाहल विष निकला। यह विष इतना भयंकर था कि समस्त सृष्टि के विनाश की आशंका उत्पन्न हो गई। उस समय भगवान शिव ने अपनी करुणा और संकल्प शक्ति से उस विष को ग्रहण कर लिया। उन्होंने उसे गले में ही रोक लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे ‘नीलकंठ’ कहलाए।

शिव की यह भूमिका केवल देवताओं के रक्षक की नहीं थी, बल्कि समस्त जगत के जीवनदाता की थी। उन्होंने संसार को बचाने के लिए स्वयं को संकट में डाला। इसलिए सावन में उनका पूजन, विशेषतः जलाभिषेक इस त्याग और रक्षण भावना का स्मरण है।

सावन केवल धार्मिक या पौराणिक महत्व तक सीमित नहीं है, यह प्रकृति के साथ भी गहरे संबंध रखता है। यह वर्षा ऋतु का मध्य काल है। धरती अपने को हरे चादर में ढँक लेती है, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, वन-उपवन, पर्वत-नदियां सब उल्लसित हो उठते हैं।

प्रकृति की यह सौंदर्यता भी शिव को अत्यंत प्रिय है। शिव स्वयं अर्धनारीश्वर हैं आधा भाग प्रकृति का। जब प्रकृति स्वयं श्रृंगारित होती है, तब शिव का हृदय भी आनंदित होता है। यह हरीतिमा केवल दृश्य नहीं, एक आध्यात्मिक अनुभूति है। शिव की उपासना, गीले वस्त्रों में कांवर लेकर चलता श्रद्धालु, कांवड़ियों के गीत सब मिलकर सृष्टि को संगीतमय बना देता है।

श्रावण मास में सोमवार के व्रत का विशेष महत्व है। श्रद्धालु पूरे महीने हर सोमवार को व्रत रखते हैं, जलाभिषेक करते हैं और ‘ॐ नमः शिवाय’ का जप करते हैं। विशेषकर महिलाएं इस दिन शिव-पार्वती की पूजा करती हैं। शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा, भस्म, दूध, दही, शहद, गंगाजल, पंचामृत अर्पित किया जाता है।

सावन का पहला और अंतिम सोमवार विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। कुछ श्रद्धालु पूरे महीने का व्रत रखते हैं, तो कुछ केवल सोमवारी उपवास करते हैं। मंदिरों में रुद्राभिषेक, रुद्राष्टाध्यायी, शिवमहिम्न स्तोत्र, शिव तांडव स्तोत्र आदि का पाठ होता है। यह न केवल धार्मिक कृत्य है, बल्कि मन के विकारों को शांत करने का माध्यम भी है।

शिव सृजन और संहार दोनों के देवता हैं। वे योगी हैं, वैरागी हैं, परिजनों के साथ गृहस्थ भी हैं। वे भूतों के स्वामी हैं और देवों के देव ‘महादेव’ भी हैं। उनका रौद्र रूप विनाशकारी है, तो करुणामयी रूप संपूर्ण सृष्टि को सहारा देता है।

सावन के महीने में शिव का यह द्वैध रूप उभरकर सामने आता है। कभी वे गंगाजल से शीतल किए जाते हैं, तो कभी भोले बाबा के रूप में भक्तों की पीड़ा हरते हैं। वे भस्म से अलंकृत हैं, लेकिन उन्हें चंदन की शीतलता भी प्रिय है। इस संतुलन में ही सावन का सौंदर्य है।

भारत के अनेक भागों में सावन में मेले, झूले, लोकगीत और सामूहिक उपासना का आयोजन होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और बंगाल में श्रावणी मेलों की परंपरा है। महिलाएं हरियाली तीज, नागपंचमी, रक्षा बंधन जैसे पर्व मनाती हैं।

सावन महज एक महीने का नाम नहीं है। यह एक साधना है, एक यात्रा है, एक अनुभूति है। यह ऋतु मनुष्य को उसके भीतर के शिव से जोड़ने आती है। यह महीना प्रकृति और पुरुष, राग और वैराग्य, प्रेम और तप का अद्भुत संगम है।



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