देश की राजनीति में बयानबाज़ी कोई नई बात नहीं, लेकिन राहुल गांधी ने हाल ही में जो चुनावी धांधली का “एटॉमिक बम” फोड़ा, वह ज़्यादा देर तक धुआं भी नहीं दे पाया। आरोप बड़े-बड़े, अंदाज़ तगड़ा, लेकिन ज़मीनी सच्चाई में दम न के बराबर।
राहुल का दावा है कि वोटर लिस्ट में डुप्लीकेट नाम, फर्ज़ी पते और एक ही जगह 50–60 मतदाताओं के नाम दर्ज हैं। सुनने में ये बातें सचमुच चौंकाने वाली हैं, लेकिन हकीकत ये है कि ये गड़बड़ियां किसी एक पार्टी की देन नहीं, बल्कि पूरे देश के चुनावी तंत्र में फैली पुरानी बीमारी हैं। बिहार में चुनाव आयोग के SIR (Systematic Internal Review) अभियान के दौरान तेजस्वी यादव जैसे नेताओं के नाम पर भी डुप्लीकेट वोटर आईडी निकलना इसका सबूत है।
सच ये है…
चुनाव आयोग इन खामियों को सुधारने के लिए पहले से ही सघन कार्रवाई कर रहा है — घर-घर जाकर सत्यापन, संदिग्ध नाम हटाना और डेटा अपडेट करना। राहुल गांधी का आरोप ये मान कर चलता है मानो चुनाव आयोग आंख मूंद कर बैठा हो, जबकि हकीकत इससे उलट है।
समझ की कमी या राजनीतिक हथियार?
लेख का सबसे बड़ा तर्क यही है — राहुल गांधी या तो SIR जैसी प्रक्रियाओं को ठीक से समझते नहीं, या फिर जानबूझकर इसे अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। आरोप लगाने के बाद ठोस सबूत और समाधान पेश करने की जिम्मेदारी भी होती है, वरना यह सब महज़ चुनावी शोर बनकर रह जाता है।
“एटॉमिक बम” का हश्र
जिसे राहुल गांधी ने चुनावी राजनीति का “एटॉमिक बम” कहा, वह अंत में पटाखा भी नहीं निकला। बयानबाज़ी से सुर्खियां तो मिल जाती हैं, लेकिन मतदाता अब आंकड़ों और तथ्यों की मांग करते हैं। और इस मामले में, राहुल गांधी का हथियार खाली चला गया।
राहुल गांधी को समझना होगा कि लोकतंत्र में गड़बड़ियां दिखाना आसान है, लेकिन उन्हें दूर करने के लिए ठोस काम, सही तैयारी और सटीक आंकड़े चाहिए। वरना, बड़े-बड़े दावे बस चुनावी हंसी-ठिठोली बनकर रह जाएंगे — और विरोधियों के लिए मज़ाक का आसान चारा।
