शिबू सोरेन का निधन: झारखंड की राजनीति का एक युग समाप्त

Jitendra Kumar Sinha
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झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के संरक्षक शिबू सोरेन का 81 वर्ष की उम्र में दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया। वह पिछले कुछ समय से गंभीर रूप से बीमार थे और लंबे समय से अस्पताल में भर्ती थे। सोमवार सुबह 8:56 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली।


उनके निधन की जानकारी उनके बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने दी। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा – "आज मैं शून्य हो गया हूं। आदरणीय दिशोम गुरुजी हम सभी को छोड़कर चले गए हैं।" शिबू सोरेन लंबे समय से किडनी की समस्या से जूझ रहे थे और उन्हें जून के आखिरी हफ्ते में अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इलाज के दौरान उन्हें स्ट्रोक भी आया और तब से ही वह वेंटिलेटर सपोर्ट पर थे।


शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति के बड़े चेहरे रहे। उन्होंने तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभाली। पहली बार वे मार्च 2005 में केवल 10 दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद अगस्त 2008 से जनवरी 2009 और फिर दिसंबर 2009 से जून 2010 तक उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। इसके अलावा उन्होंने केंद्र सरकार में कोयला मंत्री के रूप में भी सेवाएं दीं।


उनका राजनीतिक जीवन लगभग चार दशकों तक सक्रिय रहा। वे आठ बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा सदस्य रहे। शिबू सोरेन को ‘दिशोम गुरु’ यानी आदिवासियों का गुरु कहा जाता था। उन्होंने महाजनी प्रथा और शोषण के खिलाफ अनेक आंदोलनों की अगुवाई की, जिसमें सबसे प्रसिद्ध रहा धनकटनी आंदोलन। वह आदिवासी अधिकारों और स्वशासन की मांग को लेकर हमेशा मुखर रहे।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित देश के तमाम बड़े नेताओं ने उनके निधन पर शोक जताया। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को शोक संदेशों की बाढ़ आ गई और झारखंड की राजनीति में शोक की लहर दौड़ गई। बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने भी उनके निधन को ‘एक युग का अंत’ बताया।


शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ था। बचपन में ही उन्होंने एक मरे हुए पक्षी को देखकर मांस खाना छोड़ दिया और जीवनभर शाकाहारी बने रहे। उनके पिता की हत्या महाजनों द्वारा कर दी गई थी, जिसने उनके भीतर जनजागरण की चिंगारी को भड़काया। इसके बाद उन्होंने आदिवासी समाज को संगठित करना शुरू किया।


उनका जीवन आदिवासी समाज की लड़ाई, सामाजिक न्याय और संघर्षों से भरा रहा। आज उनके निधन के साथ झारखंड ने न केवल एक वरिष्ठ नेता को खोया है, बल्कि एक विचारधारा, एक आंदोलन और एक युग का भी अंत हो गया है।

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