ट्रंप-पुतिन वार्ता से टूटी भारत की उम्मीदें, रूस-यूक्रेन जंग पर नहीं दिखा समाधान

Jitendra Kumar Sinha
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रूस ने ऑन-ग्राउंड गेम सुधार लिया है, और ट्रंप के लिए यूक्रेन युद्ध रोक पाना अब सिरदर्द बन चुका है। अलास्का में ट्रंप और पुतिन की बातचीत का उसूल साफ था—कहीं न कहीं, भारत की उम्मीद भूले-बिसरे पन्नों पर धँस रही है। उम्मीद ये थी कि ट्रंप की मध्यस्थता कुछ तोजिला (राह) देगी: युद्ध की विभीषिका थमेगी, वैश्विक स्थिरता आएगी, और भारत को आर्थिक/रणनीतिक लाभ मिल सकता है। लेकिन हुआ उल्टा—कुछ संकेतात्मक प्रगति के बावजूद कोई वास्तविक बदलाव नहीं हुआ, और उम्मीदों को धक्का लगा है।


हमने सोचा था कि यह वार्ता उस कड़ी को बढ़ाएगी जो भारत को वैश्विक मंच पर हथियार, ऊर्जा या आर्थिक राहत की ओर ले जाए—पर यह सपना अभी भी अधूरा ही लग रहा है। ट्रंप-पुतिन संवाद में सीमित सबूत रहे कि कोई ऐसी बात निकलकर आ सकती है जो भारत की चिंता—विशेषकर ऊर्जा सुरक्षा या व्यापार—को कम करे।


खास बात यह है कि इस शिखर वार्ता से भारत की अपेक्षाएं जड़ जमाने वाली नहीं रहीं, बल्कि टूटने लगीं। जो ‘मूल्य’ भारत को इस मुकाम पर खींच लाया था—चाहे वह ऊर्जा की आपूर्ति हो, कूटनीतिक अच्छा-ख़ासा साथ हो या वैश्विक मुद्रास्फीति/स्थिरता की उम्मीद हो—वह सारी उम्मीदें अब शायद वासना के जाल में उलझकर रह गई हैं।


रूस की बढ़ती ताकत—जहां ट्रंप की कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं—भारत के लिए एक और मुश्किल जोड़ रही है। यही असल मायूसी का मूल बिंदु है: भारत की उम्मीदों का केंद्र कभी ट्रंप की रणनीति पर टिका था, लेकिन अब वे बस विदेश नीति की खामोश चट्टानों पर टूटते टुकड़ों की तरह दिख रही हैं।

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