आभा सिन्हा, पटना
भारत और इसके सांस्कृतिक क्षेत्र के बाहर बसे अनेक शक्तिपीठों में अर्पण शक्तिपीठ का स्थान विशिष्ट है। यह पवित्र स्थल बांग्लादेश के शेरपुर बागुरा स्टेशन से लगभग 28 किलोमीटर दूर भवानीपुर गाँव के पास, पवित्र करतोया नदी के तट पर स्थित है। धार्मिक मान्यता है कि यहाँ माता सती की पायल (तल्प) गिरी थी, इसलिए इसे अर्पण कहा जाता है। इस शक्तिपीठ की शक्ति का नाम है अर्पण और इसके भैरव को वामन कहा जाता है।
अर्पण केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा, भक्ति, इतिहास और लोकसंस्कृति का अद्वितीय संगम है। शक्तिपीठों का संबंध माता सती और भगवान शिव की कथा से जुड़ा है। जब राजा दक्ष ने यज्ञ में शिव का अपमान किया, तो सती ने स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया। शोक और क्रोध में शिव ने सती के शरीर को लेकर तांडव किया। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की, जिन्होंने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के अंग काटकर विभिन्न स्थानों पर गिरा दिए। इन स्थानों पर शक्तिपीठ स्थापित हुआ, जिनकी संख्या प्रमुख मान्यता के अनुसार 51 है (कुछ मतों में 108 भी बताए जाते हैं)। जहाँ माता सती के पायल (तल्प) गिरा है, वह स्थल अर्पण कहलाया है। "तल्प" शब्द संस्कृत में पांव की पायल के लिए प्रयुक्त होता है, और यह प्रतीक है भक्ति में संपूर्ण समर्पण का।
अर्पण बांग्लादेश के उत्तरी भाग में स्थित है। यह स्थान भवानीपुर गाँव, शेरपुर बागुरा से लगभग 28 किलोमीटर की दूरी पर, करतोया नदी के किनारे है। करतोया नदी का प्रवाह यहाँ शांत और पवित्र माना जाता है। आसपास का क्षेत्र ग्रामीण और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यह इलाका प्राचीन काल से ही व्यापार और कृषि के लिए प्रसिद्ध रहा है। कहा जाता है कि पाला वंश के शासनकाल में यहाँ मंदिर का निर्माण हुआ। बौद्ध और शैव-शक्ति साधनाओं के मेल से यह स्थल विकसित हुआ।
अर्पण की कथा शक्तिपीठों की मुख्य कथा से जुड़ी है, पर इसमें समर्पण का विशेष भाव है। जब विष्णु के सुदर्शन चक्र से सती का शरीर खंडित हुआ, तो उनके पांव की पायल यहाँ गिरी। पायल केवल एक आभूषण नहीं, बल्कि नारी की शोभा और पवित्रता का प्रतीक है। इसका गिरना यह दर्शाता है कि यहाँ भक्त को अपनी अहंकार, मोह और लोभ की पायल उतारकर ईश्वर को समर्पित करना चाहिए।
अर्पण शक्तिपीठ के भैरव वामन हैं। वामन अवतार में भगवान विष्णु ने तीन पग में त्रिलोक नापकर दैत्य बलि का अभिमान तोड़ा था। यह भी समर्पण का ही प्रतीक है, अहंकार का त्याग और ईश्वर को अर्पण।
अर्पण केवल स्थानीय लोगों के आस्था का केंद्र नहीं है, बल्कि यह पूरे हिन्दू समाज के लिए पवित्र तीर्थ है। यहाँ दर्शन करने से समर्पण भाव की प्राप्ति होती है। भक्त मानते हैं कि यहाँ माता से माँगी हर मनोकामना पूर्ण होती है। विशेषकर विवाह, संतान और जीवन में स्थिरता के लिए यहाँ आशीर्वाद माँगा जाता है। अर्पण में पूजा के दौरान चाँदी या चूड़ी की पायल चढ़ाने की परंपरा है। करतोया नदी में स्नान कर शुद्ध होकर मंदिर में प्रवेश किया जाता है। माता को लाल चूनरी, चंदन, हल्दी-कुमकुम और मिठाई अर्पित किया जाता है।
अर्पण शक्तिपीठ का मंदिर वास्तुकला में बांग्ला और प्राचीन भारतीय शैली का अद्भुत संगम है। चूना-पत्थर और ईंट से निर्मित मंदिर है। गर्भगृह में माता की प्रतीकात्मक पायल और शक्ति-लिंग स्थित हैं। चारों दिशाओं में खुला बरामदा है, ताकि वायु और प्रकाश भरपूर पहुँचे।
भैरव मंदिर मुख्य मंदिर के पास स्थित। वामन भैरव की मूर्ति यहाँ स्थापित है, जो शांत और गंभीर भाव में हैं। आसपास तीर्थ यात्रियों के लिए धर्मशाला और करतोया नदी के घाट है।
अर्पण शक्तिपीठ में वर्ष भर धार्मिक गतिविधियाँ चलती रहती हैं, लेकिन कुछ अवसर विशेष होता है। चैत्र और आश्विन नवरात्रि में नौ दिन भव्य आयोजन होता है। दुर्गा सप्तशती का पाठ, भजन-कीर्तन और रात्रि जागरण होता है। महाशिवरात्रि शिव और शक्ति के संयुक्त पूजन का पर्व है। भक्तगण वामन भैरव के दर्शन के लिए दूर-दूर से आते है। मान्यता के अनुसार, जिस दिन माता की पायल यहाँ गिरी थी, उस तिथि पर वार्षिक मेला लगता है, जिसे अर्पण मेला कहा जाता है। लोककला, हस्तशिल्प, भजन प्रतियोगिता और ग्रामीण खेलों का आयोजन होता है।
स्थानीय लोगों में अर्पण को लेकर कई लोककथाएँ प्रचलित हैं। एक महिला भक्त हर दिन नदी पार कर माता के दर्शन करने आती थी। एक दिन उसने अपनी चाँदी की पायल खो दी और रोने लगी। अगले दिन मंदिर में वही पायल माता की मूर्ति के पास मिली। तब से यहाँ पायल चढ़ाने की परंपरा शुरू हुई। कहा जाता है कि करतोया नदी का जल यहाँ स्वयं गंगाजल की तरह पवित्र हो जाता है।
अर्पण शक्तिपीठ का प्रभाव केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पर भी पड़ा है। यहाँ के मेलों में शक्ति वंदना के लोकगीत और भजन गाए जाते हैं। पौराणिक कथाओं पर आधारित 'शक्ति नाट्य' का मंचन होता है। पायल, चूड़ी और लाल चूनरी बनाने का स्थानीय व्यवसाय है।
अर्पण शक्तिपीठ आज बांग्लादेश में है, इसलिए यहाँ भारतीय भक्तों के लिए यात्रा आसान नहीं है। सीमा और वीजा नियम के तहत भारतीय यात्रियों को विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। संरक्षण की कमी कारण कुछ हिस्सों में मंदिर संरचना जर्जर हो रही है। स्थानीय प्रशासन और हिन्दू समुदाय के प्रयासों से यह स्थल सुरक्षित है, पर समय-समय पर धार्मिक स्वतंत्रता में कठिनाइ होती है।
अर्पण की मुख्य शिक्षा है पूर्ण समर्पण। अहंकार छोड़ना। लोभ-मोह का त्याग करना। ईश्वर की शरण में आना। जीवन को धर्म और सेवा में अर्पित करना।
अर्पण शक्तिपीठ केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन के उच्चतम आदर्श, समर्पण का प्रतीक है। यहाँ आकर भक्त न केवल माता के दर्शन करते हैं, बल्कि अपने भीतर की नकारात्मकता को त्यागकर सकारात्मक ऊर्जा से भर कर जाते हैं। करतोया नदी के शांत प्रवाह, भवानीपुर गाँव की पवित्र भूमि और अर्पण मंदिर की भव्यता, यह सब मिलकर इसे एक अद्वितीय तीर्थ बनाता है।
