मानव सभ्यता के इतिहास में विज्ञान और तकनीक ने हमेशा जीवन को आसान और सुरक्षित बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। बीमारियों के उपचार से लेकर जीवन रक्षक तकनीकों तक, हर क्षेत्र में वैज्ञानिक खोजों ने इंसान को नई उम्मीद दी है। इसी कड़ी में हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के फ्रेजर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने ऐसी त्वचा तैयार करने में सफलता हासिल की है, जो केवल देखने में ही असली नहीं लगती, बल्कि महसूस भी कर सकती है। यह ‘ह्यूमन स्किन ऑर्गेनॉइड’ वैज्ञानिकों की छह साल लंबी मेहनत का नतीजा है।
यह खोज केवल चिकित्सा विज्ञान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए क्रांतिकारी है। क्योंकि यह भविष्य में उन लाखों मरीजों को नया जीवन दे सकती है, जो गंभीर जलन, कैंसर, या दुर्लभ त्वचा रोगों से जूझ रहे हैं।
त्वचा केवल शरीर की बाहरी परत नहीं है, बल्कि यह सबसे बड़ा अंग है जो पर्यावरण से सुरक्षा देता है। यह शरीर को संक्रमण, धूप, प्रदूषण और रसायनों से बचाती है। त्वचा में मौजूद तंत्रिकाएं गर्मी, ठंडक, दर्द और स्पर्श का एहसास कराती हैं। इसमें रोम कूप और पसीने की ग्रंथियां हैं जो तापमान को नियंत्रित करती हैं। त्वचा में प्रतिरक्षा कोशिकाएं होती हैं जो रोगाणुओं से लड़ती हैं।
अब तक चिकित्सा विज्ञान के लिए त्वचा की प्रतिकृति बनाना बेहद कठिन काम था, क्योंकि इसमें केवल कोशिकाएं ही नहीं बल्कि रक्त वाहिकाओं, बालों और ग्रंथियों जैसी जटिल संरचनाओं की भी जरूरत होती है।
इससे पहले लैब में केवल पतली परत वाली कृत्रिम त्वचा बनाई जाती थी। यह केवल सीमित स्तर पर जलने या चोटिल हिस्सों की ड्रेसिंग में काम आती थी। उसमें संवेदनशीलता, रक्त प्रवाह और ग्रंथियां मौजूद नहीं होती थीं। लेकिन क्वींसलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जो नया मॉडल तैयार किया है, उसमें रक्त वाहिकाएं (Blood Vessels), प्रतिरक्षा कोशिकाएं (Immune Cells), रोम कूप (Hair Follicles), स्वेद ग्रंथियां (Sweat Glands), संवेदनशीलता महसूस करने वाली नसें सब कुछ शामिल है। यानि यह मॉडल असली त्वचा की तरह काम करेगा।
इस त्वचा को बनाने की प्रक्रिया भी उतनी ही रोचक है। वैज्ञानिकों ने इंसानी त्वचा कोशिकाएं लेकर उन्हें स्टेम सेल में रीप्रोग्राम किया। इन स्टेम सेल्स से ‘ह्यूमन स्किन ऑर्गेनॉइड’ तैयार किए गए। लगातार प्रयोगों और असफलताओं के बाद शोधकर्ताओं ने ऐसा मॉडल तैयार किया जिसमें रक्त आपूर्ति, तंत्रिकाएं और ग्रंथियां मौजूद थीं। लैब में इस त्वचा को ट्रे जैसी संरचना में विकसित किया गया, जहां वैज्ञानिक इसके बढ़ने और कार्य करने की प्रक्रिया को देख सकते थे।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तकनीक न केवल त्वचा प्रत्यारोपण (Skin Grafting) के लिए अहम है, बल्कि दुर्लभ आनुवंशिक बीमारियों को समझने और उनके उपचार विकसित करने में भी मददगार होगी। सोरायसिस (Psoriasis)- त्वचा पर लाल चकत्ते और खुजली। एटॉपिक डर्मेटाइटिस (Atopic Dermatitis)- एलर्जी से होने वाली पुरानी खुजली और सूजन। स्क्लेरोडर्मा (Scleroderma)- त्वचा का असामान्य कठोर होना। एपिडर्मोलाइसिस बुलोसा (EB)- जिसे ‘बटरफ्लाई डिजीज’ कहते हैं, क्योंकि इसमें त्वचा तितली के पंख जैसी नाजुक हो जाती है। इन बीमारियों पर अब तक सीमित उपचार थे, लेकिन यह नई खोज इन पर निर्णायक शोध का आधार बनेगी।
एपिडर्मोलाइसिस बुलोसा (EB) एक ऐसी बीमारी है जिसमें त्वचा इतनी नाजुक हो जाती है कि हल्का स्पर्श भी दर्दनाक घाव बना देता है। दुनिया में हजारों बच्चे इस बीमारी के साथ जन्म लेते हैं और सामान्य जीवन जी पाना उनके लिए लगभग असंभव हो जाता है। अब यह उन्नत त्वचा मॉडल उन बच्चों के लिए नई उम्मीद है। यदि लैब में ऐसी संवेदनशील त्वचा बनाई जा सकती है, तो भविष्य में इन मरीजों पर प्रत्यारोपण करके उन्हें सामान्य जीवन दिया जा सकेगा।
कैंसर, विशेषकर मेलानोमा और गैर-मेलानोमा त्वचा कैंसर, हर साल लाखों लोगों की जान ले लेते हैं। आंकड़ा बताता है कि— हर साल लगभग 3 लाख मेलानोमा और 12 से 63 लाख गैर-मेलानोमा त्वचा कैंसर के मामले दर्ज होता हैं।
यह खोज आने वाले समय में चिकित्सा जगत के लिए कई नए रास्ते खोलेगी। जलने और चोटिल मरीजों के लिए प्रत्यारोपण, गंभीर झुलसने पर मरीज को नई संवेदनशील त्वचा मिल सकेगी। कैंसर के उपचार में मदद,
त्वचा कैंसर को समझने और दवाओं का परीक्षण करने में नई तकनीक। दुर्लभ आनुवंशिक रोगों का इलाज - बटरफ्लाई डिजीज जैसे रोगों में नई आशा। दवाओं का परीक्षण- नई दवाओं और कॉस्मेटिक उत्पादों का परीक्षण बिना जानवरों पर प्रयोग किए किया जा सकेगा। रोबोटिक्स और बायो-इंजीनियरिंग- संवेदनशील कृत्रिम त्वचा का उपयोग भविष्य के मानवरूपी रोबोट्स और कृत्रिम अंगों में भी किया जा सकेगा।
हालांकि यह खोज क्रांतिकारी है, लेकिन अभी इसे इंसानी उपयोग तक लाने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना होगा। क्लिनिकल ट्रायल्स (Clinical Trials), सुरक्षा और विश्वसनीयता की जांच, बड़े पैमाने पर उत्पादन की तकनीक, मरीज की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा अस्वीकृति (Rejection) की समस्या, लागत और उपलब्धता। वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले वर्षों में इन चुनौतियों को पार करते हुए यह तकनीक चिकित्सा जगत में व्यावहारिक रूप से लागू की जा सकेगी।
इतिहास गवाह है कि विज्ञान ने जब भी कोई नई खोज की है, उसने इंसान के जीवन को नई दिशा दी है। जैसे- पेनिसिलिन की खोज ने लाखों जानें बचाईं। अंग प्रत्यारोपण ने असंभव को संभव बनाया। कृत्रिम हृदय और डायलिसिस मशीन ने जीवन की अवधि बढ़ाई। अब संवेदनशील मानव त्वचा की खोज भी उसी श्रेणी में जुड़ गई है। यह केवल चिकित्सा का ही नहीं, बल्कि मानवता का भी बड़ा कदम है।
हर वैज्ञानिक खोज के साथ कुछ नैतिक और सामाजिक प्रश्न भी खड़े होते हैं। क्या यह तकनीक केवल अमीर देशों और अमीर लोगों तक सीमित रह जाएगी? क्या इस पर निजी कंपनियों का एकाधिकार होगा? क्या भविष्य में ‘डिज़ाइनर त्वचा’ जैसी अवधारणा सामने आ सकती है? इन प्रश्नों पर भी विचार जरूरी है ताकि विज्ञान का लाभ पूरे समाज तक समान रूप से पहुंच सके।
भारत में जलने और त्वचा रोगों के मामले बहुत आम हैं। घरेलू दुर्घटनाओं, सड़क हादसों और औद्योगिक दुर्घटनाओं से हर साल हजारों लोग झुलस जाते हैं। इसके अलावा त्वचा कैंसर और दुर्लभ आनुवंशिक बीमारियां भी यहां मौजूद हैं। यदि यह तकनीक भारत में उपलब्ध हो सके, तो हजारों मरीजों को नई जिन्दगी मिलेगी। मेडिकल रिसर्च को नई दिशा मिलेगी। कॉस्मेटिक और दवा उद्योग में नए अवसर खुलेंगे।
फ्रेजर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की यह खोज केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं है, बल्कि यह इंसानियत के लिए नई उम्मीद है। जलने से पीड़ित, त्वचा रोगों से जूझ रहे या कैंसर जैसी घातक बीमारी के मरीजों के लिए यह जीवनदायी साबित हो सकती है।
