14 सितंबर (रविवार) को मनाया जाएगा - संतान सुख, दीर्घायु और वंश की निरंतरता का अनोखा पर्व - “जिउतिया”

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना,

भारतीय संस्कृति में व्रत-उपवास केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं है, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक जुड़ाव का प्रतीक हैं। इसमें सबसे विशेष है जिउतिया व्रत (जीवित्पुत्रिका व्रत), जिसे माताएँ अपने संतान की लंबी आयु, स्वास्थ्य और सौभाग्य की मंगलकामना के लिए करती है। जिउतिया व्रत (जीवित्पुत्रिका व्रत) आश्विन कृष्ण अष्टमी को पड़ने वाला व्रत है। इस बार यह व्रत 14 सितंबर (रविवार) को मनाया जाएगा। रोहिणी नक्षत्र और जयद् योग के शुभ संयोग में होने के कारण इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है।

यह व्रत मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में धूमधाम से मनाया जाता है। लोककथाओं, धार्मिक मान्यताओं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परंपराओं ने इसे इतना पवित्र और लोकप्रिय बना दिया है कि आज भी लाखों माताएँ निर्जला रहकर संतान की रक्षा की कामना करती हैं।

जिउतिया व्रत की कथा और महत्व जीमूतवाहन नामक एक पौराणिक पात्र से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय गरुड़ और नागों के बीच युद्ध छिड़ा। नाग रोज अपने पुत्रों को गरुड़ के भक्षण हेतु देते थे। उस समय जीमूतवाहन नामक एक परोपकारी राजा ने नागों की रक्षा का संकल्प लिया। उन्होंने स्वयं को बलिदान स्वरूप गरुड़ को समर्पित कर दिया। उनके इस त्याग और निःस्वार्थ भावना ने उन्हें अमर कर दिया। भगवान शिव ने इस कथा को माता पार्वती को सुनाया, और माता पार्वती ने इसे मातृत्व की शक्ति और संतान की रक्षा का प्रतीक माना। तभी से यह व्रत माताएँ निर्जला रहकर करती हैं।

जिउतिया व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह मातृत्व की उस शक्ति का उत्सव है जो अपने संतान की कुशलता हेतु हर कठिनाई झेल सकती है। यह व्रत त्याग, विश्वास और प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाता है।

यह व्रत 14 सितंबर (रविवार) को मनाया जाएगा। इसके लिए सरगही (ओठगन) 13 सितंबर 2025 को भोर में, व्रत प्रारंभ (निर्जला उपवास) 14 सितंबर 2025, रविवार को और पारण (उपवास तोड़ना) 15 सितंबर 2025, प्रातः 6:36 बजे के बाद किया जाएगा। 

जिउतिया व्रत से एक दिन पहले सरगही या ओठगन की परंपरा होती है। भोर में माताएँ संकल्प लेकर चाय, शरबत, ठेकुआ, गुझिया, दही-चूड़ा, मिष्ठान्न आदि का सेवन करती हैं। इसे शक्ति संचय की प्रक्रिया माना जाता है ताकि अगले दिन का निर्जला व्रत निभाने की शक्ति मिल सके।

नहाय-खाय की परंपरा के तहत इस दिन महिलाएँ मडुआ की रोटी और नोनी का साग खाती हैं। मान्यता है कि जिस प्रकार नोनी का साग हर परिस्थिति में बढ़ता है, वैसे ही संतान जीवन के हर संकट से सुरक्षित रहती है।

व्रती महिलाएँ 24 घंटे तक बिना जल ग्रहण किए उपवास करती हैं। यह अत्यंत कठिन व्रत है, जिसे केवल मातृशक्ति का संबल ही निभा सकता है। इस व्रत में कुश से बनी जीमूतवाहन की प्रतिमा, माता लक्ष्मी और देवी दुर्गा की पूजा, दीप, फूल, धूप, फल और अक्षत की आवश्यकता होती है। व्रत के दौरान महिलाएँ जीमूतवाहन की कथा सुनती हैं। यह कथा संतान की रक्षा और मातृ-त्याग की गाथा है। पारण से पहले व्रती महिलाएँ अन्न का दान करती हैं और पारण प्रथा के अनुसार केराव से किया जाता है।

जिउतिया व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि लोक संस्कृति का उत्सव भी है। महिलाएँ रातभर जागकर लोकगीत और सोहर गाती हैं। गीतों में माँ का ममतामयी भाव और संतान की लंबी आयु की प्रार्थना झलकती है। गाँव की महिलाएँ मिलकर सामूहिक पूजा करती हैं, जिससे आपसी भाईचारा और सामुदायिकता प्रबल होती है।

भले ही यह व्रत धार्मिक है, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक और सामाजिक संदेश भी छिपा है। निर्जला उपवास शरीर को अनुशासित करता है और मानसिक दृढ़ता बढ़ाता है। व्रत शरीर को शुद्ध करता है और अनावश्यक तत्वों को बाहर निकालने में सहायक है। माताएँ जब संतान की कुशलता हेतु सामूहिक रूप से प्रार्थना करती हैं तो उनमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।

बिहार और झारखंड में इसे ‘जीउतिया’ या ‘जितिया’ कहा जाता है और बड़े उत्साह से मनाया जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में विशेषकर गोरखपुर, बनारस, बलिया क्षेत्र में इसकी धूम रहती है। नेपाल का तराई क्षेत्र में इसे अत्यधिक पवित्र माना जाता है और संतान की सुरक्षा का सबसे श्रेष्ठ व्रत समझा जाता है।

ग्रामीण इलाकों में इस व्रत से जुड़ी कई रोचक लोककथाएँ भी सुनाई जाती हैं। एक कथा में बताया गया है कि कैसे एक माँ ने कठोर उपवास कर अपने पुत्र को अकाल मृत्यु से बचाया। दूसरी कथा में जिउतिया व्रत को स्त्रियों की सामूहिक शक्ति का प्रतीक बताया गया है, जिसने एक गाँव को महामारी से सुरक्षित रखा।

आज के आधुनिक दौर में भी जिउतिया व्रत की प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी इसे पूरे विधि-विधान से करती हैं। विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय और नेपाली समुदाय भी इस परंपरा को निभा रहे हैं। सोशल मीडिया और ऑनलाइन मंचों पर महिलाएँ व्रत के अनुभव, कथा और गीत साझा करती हैं।

जिउतिया व्रत सामूहिकता और महिला शक्ति का प्रतीक है। गाँव की महिलाएँ मिलकर व्रत करती हैं, जिससे सहयोग और एकजुटता की भावना प्रबल होती है। यह व्रत माँ की शक्ति और त्याग को महिमा मंडित करता है। इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है संतान की रक्षा, वंश की निरंतरता, परिवार की समृद्धि। इसलिए इसे संतान सुख की रक्षा का सर्वोत्तम व्रत कहा जाता है।



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