मां कालरात्रि को महायोगिनी, महायोगीश्वरी और शुभंकरी भी कहा जाता है - नवरात्र में सप्तमी को होती है पूजा

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारतीय संस्कृति में नवरात्र शक्ति-उपासना का सर्वोच्च पर्व है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है, बल्कि भक्ति, साधना, संयम और आत्मशुद्धि का भी अद्वितीय अवसर है। वर्ष में दो बार “ चैत्र और शारदीय” नवरात्र विशेष रूप से मनाया जाता है। शारदीय नवरात्र का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इसके समापन पर विजयादशमी (दशहरा) मनाया जाता है, जो असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है।

नवरात्र में मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की आराधना की जाती है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री। इनमें सातवें दिन पूजित “मां कालरात्रि” का स्वरूप भक्तों को भयमुक्त कर वीरता और साहस प्रदान करता है।

“मां कालरात्रि” का रूप रहस्यमय, रौद्र और अद्भुत है। इनका शरीर अंधकार (काल) के समान श्यामवर्ण है।
लंबे बिखरे हुए केश और प्रज्वलित नेत्र इनकी तेजस्विता को दर्शाता है। गले में बिजली की तरह चमकती माला है। इनके चार भुजाओं में से एक में खड्ग (तलवार), दूसरे में लौह अस्त्र, तीसरे में वरमुद्रा और चौथे में अभयमुद्रा है। यह रौद्र रूप देखने में भले ही भयानक लगे, परंतु भक्तों के लिए यह सदैव शुभकारी है। इसी कारण इन्हें ‘शुभंकारी’ भी कहा जाता है।

“मां कालरात्रि” से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कथा दैत्य रक्तबीज के वध की है। दैत्य शुंभ-निशुंभ और उनका सेनापति रक्तबीज तीनों लोकों में आतंक मचाए हुए था। रक्तबीज की विशेषता यह थी कि उसके शरीर से गिरे रक्त की प्रत्येक बूंद से नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाता था। देवताओं ने भगवान शिव से सहायता की प्रार्थना की। शिवजी के कहने पर पार्वतीजी ने दुर्गा रूप धारण कर युद्ध किया। युद्ध के दौरान रक्तबीज का संहार कठिन हो गया क्योंकि उसके रक्त से असंख्य दैत्य जन्म ले रहा था। तब मां दुर्गा ने अपने तेज से “मां कालरात्रि” को उत्पन्न किया। युद्ध के समय जब भी दुर्गा ने रक्तबीज का रक्त बहाया, “मां कालरात्रि” उसे धरती पर गिरने से पहले ही पी जाती थी। इस प्रकार रक्तबीज का अंत हुआ और देवताओं को राहत मिली। यह कथा बताती है कि नकारात्मकता और भय पर विजय तभी संभव है जब साधक अपने भीतर के अंधकार को स्वयं ही निगल ले।

सप्तमी के दिन “मां कालरात्रि” की पूजा विशेष विधि से की जाती है। प्रातः स्नान कर स्वच्छ लाल या पीले वस्त्र धारण कर, उन्हें लाल फूल, गुड़, धूप, दीपक और सिंदूर अर्पित करना चाहिए (गुड़ का भोग विशेष प्रिय है),  “मां कालरात्रि” शोक से मुक्ति और संकटों से रक्षा करती है। सप्तमी की रात जप और साधना विशेष फलदायी माना जाता है।

नवरात्र साधना केवल बाहरी पूजा तक सीमित नहीं है। सप्तमी के दिन साधक का ध्यान सहस्रार चक्र (सिर के शीर्ष पर स्थित) पर केंद्रित होता है। सहस्रार चक्र ब्रह्मांडीय ऊर्जा का केंद्र है। “मां कालरात्रि” की साधना से यह चक्र सक्रिय होता है। साधक को अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। मन और मस्तिष्क के विकार दूर होता है।




“मां कालरात्रि” को गुड़ का भोग प्रिय है। धार्मिक दृष्टि से गुड़ चढ़ाने से संकटों का निवारण होता है। गुड़ दान करने से शोक और क्लेश दूर होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से गुड़ पाचन शक्ति को दुरुस्त करता है, शरीर को ऊर्जा देता है और रक्त को शुद्ध करता है।

उपासना मंत्र

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥

वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥

कार्य सिद्धि मंत्र

ॐ ऐं सर्वाप्रशमनं त्रैलोक्यस्या अखिलेश्वरी।
एवमेव त्वथा कार्यस्मद् वैरिविनाशनम् नमो सें ऐं ॐ।।

शत्रु निवारण मंत्र

ॐ कालरात्र्यै नमः।
ॐ फट् शत्रून् संघय घातय ॐ।

“मां कालरात्रि” को महायोगिनी और महायोगीश्वरी कहा जाता है। तांत्रिक परंपराओं में उनकी साधना से भूत-प्रेत बाधाएँ, कृत्या प्रहार, और नकारात्मक शक्तियाँ दूर होती हैं। साधक यदि पूर्ण निष्ठा से इनकी उपासना करे तो वह अभय और विजयी बनता है।

“मां कालरात्रि” का स्वरूप बताता है कि भय और अंधकार केवल दृष्टि का भ्रम है। यदि भीतर से निडर हैं, तो अंधकार भी शुभकारी हो जाता है। गांव-गांव में सप्तमी को विशेष पूजा होती है। भजन-कीर्तन, देवी जागरण, और गरबा-डांडिया जैसे उत्सव लोक संस्कृति को जीवंत करता है। बुराई का अंत निश्चित है, चाहे वह कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो।

“मां कालरात्रि” के अन्य नाम और स्वरूप है काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, चामुंडा, चंडी, रुद्राणी, धूम्रवर्णा। हर नाम उनके अलग-अलग रूप और कार्य का प्रतीक है।

“मां कालरात्रि” की पूजा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि मानसिक शक्ति और आत्मबल प्राप्त करने का साधन है। वे भक्तों को भय से मुक्त करती हैं। उनके कृपा से साधक को साहस, शक्ति और सफलता मिलती है। सप्तमी की साधना से जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।



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